ब्रह्मांड पुराण अध्याय 3 व 4 सनातन धर्म, हिन्दू धर्म

                          अध्याय – 3

चौदह मन्वन्तरों तथा विवस्वान की सन्तति का वर्णन

ऋषि बोले – महामते सूतजी ! अब समस्त मन्वन्तरों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये तथा उनकी प्राथमिक सृष्टि भी बतलाइये |

लोमहर्षण (सूत) ने कहा – विप्रगण ! समस्त मन्वन्तरों का विस्तुत वर्णन तो सौ वर्षों में भी नहीं हो सकता, अत: संक्षेप से ही सुनो | प्रथम स्वायम्भुव् मनु हैं, दूसरे स्वारोचिष, तीसरे उत्तम, चौथे तामस, पाँचवे रैवत, छठे चाक्षुष तथा सातवें वैवस्वत मनु कहलाते हैं | वैवस्वत मनु ही वर्तमान कल्प के मनु हैं | इसके बाद सावणिॅ, भौत्य, रौच्य तथा चार मेरुसावर्न्य नामके मनु होंगे | ये भूत, वर्तमान और भविष्य के सब मिलकर चौदह मनु हैं | मैंने जैसा सुना है, उसके अनुसार सब मनुओं के नाम बताये | अब इनके समयमें होनेवाले ऋषियों, मनु-पुत्रों तथा देवताओं का वर्णन करूँगा | मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य तथा वसिष्ठ – ये सात ब्रह्माजी के पुत्र उत्तर दिशामें स्थित हैं जो स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं | आग्रीध्र, अग्निबाहू, मेध्य, मेधातिथि, वसु, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, हव्य, सबल और पुत्र – ये दस स्वायम्भुव मनुके महावली पुत्र थे | विप्रगण ! यह प्रथम मन्वन्तर बतलाया गया | स्वारोचिष मन्वन्तर में प्राण, बृहस्पति, दत्तात्रेय, अत्रि, च्यवन, वायुप्रोक्त तथा महाव्रत – ये सात सप्तर्षि थे | तुषित नामवाले देवता थे और हविर्ध्र, सुकृति, ज्योति, आप, मूर्ति,प्रतीत, नभस्य, नभ तथा ऊर्ज – ये महात्मा स्वारोचिष मनुके पुत्र बताये गये हैं, जो महान बलवान और पराक्रमी थे | यह द्वितीय मन्वन्तर का वर्णन हुआ ; अब तीसरा मन्वन्तर बतलाया जाता हैं, सुनो ! वसिष्ठ के सात पुत्र वासिष्ठ तथा हिरण्यगर्भ के तेजस्वी पुत्र ऊर्ज, तनुर्ज, मधु, माधव, शुचि, शुक्र, सह, नभस्य तथा नभ – ये उत्तम मनुके पराक्रमी पुत्र थे | इस मन्वन्तर में भानु नामवाले देवता थे | इस प्रकार तीसरा मन्वन्तर बताया गया | अब चौथे का वर्णन करता हूँ | काव्य, पृथु, अग्नि, जहू, धाता कपीवान और अकपीवान – ये सात उससमय के सप्तर्षि थे | सत्य नामवाले देवता तह | द्युति, तपस्य, सुतपा, तपोभुत, सनातन, तपोरति, अकल्माष, तन्वी, धन्वी और परंतप – ये दस तामस मनुके पुत्र कहे गये हैं | यह चौथे मन्वन्तरका वर्णन हुआ | पाँचवाँ रैवत मन्वन्तर हैं | उसमें देवबाहू, यदुध्र, वेद्शिरा, हिरण्यरोमा, पर्जन्य, सोमनंदन, ऊर्ध्वबाहू तथा अत्रिकुमार सत्यनेत्र – ये सप्तर्षि थे | अभूतरजा और प्रकृति नामवाले देवता थे | धृतिमान, अव्यय, युक्त, तत्त्वदर्शी, नीरूत्सूक, आरण्य, प्रकाश, निर्मोह, सत्यवाक और कृति – ये रैवत मनु के पुत्र थे | यह पाँचवाँ मन्वन्तर बताया गया | अब छठे चाक्षुष मन्वन्तरका वर्णन करता हूँ | सुनो ! उसमें भृगु, नभ, विवस्वान, सुधामा, विरजा, अतिनामा और सहिष्णु – ये हु सप्तर्षि थे | लेख नामवाले पाँच देवता थे | नाडवलेय नामसे प्रसिद्ध रुरु आदि चाक्षुष मनुके दस पुत्र बतलाये जाते हैं | यहाँतक छठे मन्वन्तरका वर्णन हुआ | अब सातवें वैवस्वत मन्वन्तरका वर्णन सुनो | अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र तथा जमदग्नि – ये इस वर्तमान मन्वन्तरमें सप्तर्षि होकर आकाश में विराजमान हैं | साध्य, रूद्र, विश्वेदेव, वसु, मरुद्रण, आदित्य और अश्विनीकुमार – ये इस वर्तमान मन्वन्तर के देवता माने गये हैं | वैवस्वत मनुके इक्ष्वाकु आदि दस पुत्र हुए | ऊपर जिन महातेजस्वी महर्षियों के नाम बताये गये हैं, उन्हीं के पुत्र और पौत्र आदि सम्पूर्ण दिशाओं में फैले हुए हैं | प्रत्येक मन्वन्तरमें धर्मकी व्यवस्था तथा लोकरक्षा के लिये जो सात सप्तर्षि रहते है, मन्वन्तर बीतने के बाद उनमें चार महर्षि अपना कार्य पूरा करके रोग-शोक से रहित ब्रह्मलोक में चले जाते हैं | तत्पश्च्यात दूसरे चार तपस्वी आकर उनके स्थान की पूर्ति करते हैं | भुत और वर्तमान काल के सप्तर्षिगण इसी क्रम से होते आये हैं | सावर्णि मन्वन्तरमें होनेवाले सप्तर्षि ये हैं – परशुराम, व्यास, आत्रेय, भारद्वाजकुल में उत्पन्न द्रोणकुमार अश्वस्थामा, गोतमवंशी शरदवान, कौशिककुल में उत्पन्न गालव तथा कश्यपनंदन और्व | वैरी, अध्वरीवान, शमन, धृतिमान, वासु, अरिष्ट, अधृष्ट, वाजी तथा सुमति – ये भविष्य में सावर्णिक मनु के पुत्र होंगे | प्रात:काल उठकर इनका नाम लेने से मनुष्य सुखी, यशस्वी तथा दीर्घायु होता है |
भविष्य में होनेवाले अन्य मन्वन्तरों का संक्षेप से वर्णन किया जाता हैं, सुनो ! सावर्ण नामके पाँच मनु होंगे; उनमें से एक तो सूर्य के पुत्र हैं और शेष चार प्रजापति के | ये चारों मेरुगिरी के शिखरपर भारी तपस्या करने के कारण ‘मेरु सावर्न्य’ के नामसे विख्यात होंगे | ये दक्ष के धेवते और प्रिया के पुत्र है | इन पाँच मनुओं के अतिरिक्त भविष्य में रौंच्य और भौत्य नाम के दो मनु और होंगे | प्रजापति रूचि के पुत्र ही ‘रौंच्य’ कहे गये हैं | रूचि के दूसरे पुत्र, जो भूति के गर्भ से उत्पन्न होंगे ‘भौत्य मनु’ कहलायेंगे | इस कल्प में होनेवाले ये सात भावी मनु हैं | इस सबके द्वारा द्वीपों और नगरोंसहित सम्पूर्ण पृथिवी का एक सहस्त्र युगोंतक पालन होगा | सत्ययुग, त्रेता आदि चारों युग इकहत्तर बार बीतकर जब कुछ अधिक काल हो जाय, तब वह एक मन्वन्तर कहलाता है | इस प्रकार ये चौदह मनु बतलाये गये | ये यश की वृद्धि करनेवाले हैं | समस्त वेदों और पुराणों में भी इनका प्रभुत्व वर्णित हैं | ये प्रजाओं के पालक हैं | इनके यश का कीर्तन श्रेयस्कर हैं | मन्वन्तरों में कितने ही संहार होते हैं और संहार के बाद कितनी ही सृष्टियाँ होती रहती हैं; इन सबका पूरा-पूरा वर्णन सैकड़ों वर्षो में भी नहीं हो सकता | मन्वन्तरों के बाद जो संहार होता हैं, उसमें तपस्या, ब्रह्मचर्य और शास्त्रज्ञान से सम्पन्न कुछ देवता और सप्तर्षि शेष रह जाते हैं | एक हजार चतुर्युग पूर्ण होनेपर कल्प समाप्त हो जाता हैं | उससमय सूर्य की प्रचंड किरणों से समस्त प्राणी दग्ध हो जाते हैं | तब सब देवता आदित्यगणों के साथ ब्रम्हाजी को आगे करके सुरश्रेष्ठ भगवान् नारायण में लीन हो जाते हैं | वे भगवान ही कल्प के अन्तमें पुन: सब भूतों की सृष्टि करते हैं | वे अव्यक्त सनातन देवता हैं | यह सम्पूर्ण जगत उन्हींका हैं |
मुनिवरो ! अब मैं इससमय वर्तमान महातेजस्वी वैवस्वत मनु की सृष्टि का वर्णन करूँगा | महर्षि कश्यप से उनकी भार्या दक्षकन्या आदिती के गर्भ से विवस्वान (सूर्य) – का जन्म हुआ | विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा विवस्वान की पत्नी हुई | उसके गर्भ से सूर्य ने तीन संताने उत्पन्न की, जिनमें एक कन्या और दो पुत्र थे | सबसे पहले प्रजापति श्राद्धदेव, जिन्हें वैवस्वत मनु कहते हैं, उत्पन्न हुए | तत्पश्च्यात यम और यमुना – ये जुडवी संताने हुई | भगवान् सूर्य के तेजस्वी स्वरुप को देखकर संज्ञा उसे सह न सकी | उसने अपने ही समान व्र्न्वाली अपनी छाया प्रकट की | वह छाया संज्ञा अथवा सवर्णा नामसे विख्यात हुई | उसको भी संज्ञा ही समझकर सूर्य ने उसके गर्भ से अपने ही समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किया | वह अपने बड़े भाई मनु के ही समान था, इसलिये सावर्ण मनु के नामसे प्रसिद्ध हुआ | छाया-संज्ञा से जो दूसरा पुत्र हुआ, उसकी शनैश्वर के नामसे प्रसिद्धी हुई | यम धर्मराज के पदपर प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने समस्त प्रजा को धर्म से संतुष्ट किया | इस शुभकर्म के कारण उन्हें पितरों का आधिपत्य और लोकपाल का पद प्राप्त हुआ | सावर्ण मनु प्रजापति हुए | आनेवाले सावर्णिक मन्वन्तर के वे ही स्वामी होंगे | वे आज भी मेरुगिरी के शिखरपर नित्य तपस्या करते हैं | उनके भाई शनैश्वर ने ग्रह की पदवी पायी |

                       – नारायण नारायण –
                            अध्याय – 4

वैवस्वत मनु के वंशजों का वर्णन


लोमहर्षणजी कहते हैं – वैवस्वत मनुके नौ पुत्र उन्हीं के समान हुए; उनके नाम इसप्रकार हैं – इक्ष्वाकु, नाभाग, धृष्ट, शर्याति, नरिश्यंत, प्रांशु, अरिष्ट, करुष तथा पृषध्र | एक समय की बात हैं, प्रजापति मनु पुत्रकी इच्छासे मैत्रावरुण याग कर रहे थे | उस समयतक उन्हें कोई पुत्र नहीं हुआ था | उस यज्ञ में मनु ने मित्रावरुण के अंश की आहुति डाली | उसमें से दिव्य वस्त्र एवं दिव्य आभूषणों से विभूषित दिव्य रूपवाली इला नामकी कन्या उत्पन्न हुई | महाराज मनुने उसे ‘इला’ कहकर सम्बोधित किया और कहा – ‘कल्याणी ! तुम मेरे पास आओं |’ तब इलाने पुत्रकी इच्छा रखनेवाले प्रजापति मनुसे यह धर्मयुक्त वचन कहा – ‘महाराज ! मैं मित्रावरुण के अंशसे उत्पन्न हुई हूँ, अत: पहले उन्हीं के पास जाऊँगी | आप मेरे धर्म में बाधा न डालिये |’ यों कहकर वह सुन्दरी कन्या मित्रावरुण के समीप गयी और हाथ जोडकर बोली – ‘भगवान् ! मैं आप दोनों के अंशसे उत्पन्न हुई हूँ | आप लोगों की किस आज्ञा का पालन करूँ ? मनुने मुझे अपने पास बुलाया हैं |’
मित्रावरुण बोले – सुन्दरी ! तुम्हारे इस धर्म, विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यसे हमलोग प्रसन्न है | महाभागे ! तुम हम दोनों की कन्या के रूप में प्रसिद्ध होगी तथा तुम्हों मनु के वंश का विस्तार करनेवाला पुत्र हो जाओगी | उससमय तीनों लोकों में सुद्दुम्र के नामसे तुम्हारी ख्याति होगी |
यह सुनकर वह पिताके स्मिप्से लौट पड़ी | मार्गमें उसकी बुध से भेंट हो गयी | बुध ने  उसे मैथुन के लिये आमंत्रित किया | उनके विर्यसे उसने पुरुरवा को जन्म दिया | तत्पश्च्यात वह सुद्दुम्र के रुपमे परिणत हो गयी | सुद्दुम्र के तीन बड़े धर्मात्मा पुत्र हुए – उत्कल, गय और विन्ताश्व | उत्कल की राजधानी उत्कला (उड़ीसा) हुई | विनताश्व को पश्चिम दिशाका राज्य मिला तथा गय पूर्व दिशा के राजा हुए | उनकी राजधानी गया के नामसे प्रसिद्ध हुई | जब मनु भगवान् सूर्य के तेज में प्रवेश करने लगे, तब उन्होंने अपने राज्य को दस भागों में बाँट दिया | सुद्दुम्र के बाद उनके पुत्रों में इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे, इसलिये उन्हें मध्यदेश का राज्य मिला | सुद्दुम्र कन्या के रूप में उत्पन्न हुए थे , इसलिये उन्हें राज्य का भाग नहीं मिला | फिर वसिष्ठजी के कहने से प्रतिष्टानपुर से उनकी स्थिति हुई | प्रतिष्ठानपुर का राज्य पाकर महायशस्वी सुद्दुम्र ने उसे पुरुरवा को दे दिया | मनु-कुमार सुद्दुम्र क्रमश: स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षणों से युक्त हुए, इसलिये इला और सुद्दुम्र दोनों नामों से उनकी प्रसिद्धि हुई | नरिश्यन्त के पुत्र शक हुए | नाभाग के राजा अम्बरीष हुए | धृष्ट से धार्ष्टक नामवाले क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई, जो युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ते थे | करुष के पुत्र कारुष नामसे विख्यात हुए | वे भी रणोन्मत थे | प्रांशु के एक ही पुत्र थे, जो प्रजापति के नामसे प्रकट हुए | शर्याति के दो जुड्वी संताने हुई | उनमें अनर्त नामसे प्रसिद्ध पुत्र तथा सुकन्या नामवाली कन्या थी | यही सुकन्या महर्षि च्यवन की पत्नी हुई | अनर्त के पुत्र का नाम रैव था | उन्हें अनर्त देश का राज्य मिला | उनकी राजधानी कुशस्थली (द्वारका) हुई | रैव के पुत्र रैवत हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे { उनका दूसरा नाम ककुद्मी भी था | अपने पिता के जेष्ठ पुत्र होने के कारण उन्हें कुशस्थली का राज्य मिला | एक बार वे अपनी कन्या को साथ ले ब्रह्माजी के पास गये और वहाँ गन्धर्वो के गीत सुनते हुए दो घड़ी ठहरे रहे | इतने ही समय में मानवलोक में अनेक यग बीत गये | रैवत जब वहाँ से लौटे, तब अपनी राजधानी कुशस्थली में आये : परन्तु अब वहाँ यादवों का अधिकार हो गया था | यदुवंशियों ने उसका नाम बदलकर द्वारवती रख दिया था | उसमें बहुत-से द्वार बने थे | वह पूरी बड़ी मनोहर दिखायी देती थी | भिज, वृष्णि और अंधक वंश के वसुदेव आदि यादव उसकी रक्षा करते थे } रैवत ने वहाँ का सब वृत्तान्त ठीक-ठीक जानकर अपनी रेवती नाम की कन्या बलदेवजी को ब्याह दी और स्वयं मेरुपर्वत के शिखरपर जाकर वे तपस्या में लग गये | धर्मात्मा बलरामजी रेवती के साथ सुखपूर्वक विहार करने लगे |
पृषध्र ने अपने गुरु की गाय का वध किया था, इसलिये वे शाप से शुद्र हो गये हैं | मनु जब छींक रहे थे, उससमय इक्ष्वाकु की उत्पत्ति हुई थी | इक्ष्वाकु के सौ पुत्र हुए | उनमें विकुक्षि सबसे बड़े थे | वे अपने प्रमाक्रम के कारण अयोध्य नामसे प्रसिद्ध हुए | उन्हें अयोध्या का राज्य प्राप्त हुआ | उनके शकुनि आदि पाँच सौ पुत्र हुए, जो अत्यंत बलवान और उत्तर-भारत के रक्षक थे | उनमें से वशाति आदि अट्ठावन राजपुत्र दक्षिण दिशाके पालक हुए | विकुक्षिका दुसा नाम शशाद था | इक्ष्वाकु के मरनेपर वे ही राजा हुए | शशाद के पुत्र ककुत्स्थ, ककुत्स्थ के अनेना, अनेना के पृथु, पृथु के विष्टराश्व, विष्टराश्व के आर्द्र, आर्द्र के युवनाश्व और युवनाश्व के पुत्र श्रावस्त हुए | उन्होंने ही श्रावस्तीपूरी बसायी थी | श्रावस्त के पुत्र बृह्र्दश्व और इनके पुत्र कुवलाश्व हुए | ये बड़े धर्मात्मा राजा थे | इन्होने धुंधू नामक दैत्यका वध करने के कारण धुन्धुमार नामसे प्रसिद्धि प्राप्त की।
मुनि बोले – महाप्राज्ञ सूतजी ! हम धुंधू वध का वृतांत ठीक-ठीक सुनना चाहते है, जिससे कुवलाश्व का नाम धुन्धुमार हो गया |
लोमहर्षणजी ने कहा – कुवलाश्व के सौ पुत्र थे | वे सभी अच्छे धनुर्धर, विद्याओं में प्रवीण, बलवान और दुर्धर्ष थे | सबकी धर्म में निष्ठा थी | सभी यज्ञकर्ता तथा प्रचुर दक्षिणा देनेवाले थे | राजा बृहदश्व ने कुवलाश्व को राजपदपर अभिषिक्त किया और स्वयं वनमें तपस्या करने के लिये जाने लगे | उन्हें जाते देख ब्रह्मर्षि उत्तंक ने रोका और इसप्रकार कहा – ‘राजन ! आपका कर्तव्य है प्रजा की रक्षा, अत: वही कीजिये | मेरे आश्रम के समीप मधु नामक राक्षस का पुत्र महान असुर धुंधू रहता है | वह सम्पूर्ण लोकोंका संहार करने के लिये कठोर तपस्या करता और बालू के भीतर सोता है | वर्षभर में एक बार वह बड़े जोर से साँस छोड़ता है | उससमय वहाँ की पृथ्वी डोलने लगती है | उसके श्वास की हवासे बड़े जोर की धुल उडती है और सूर्य का मार्ग ढँक लेती है | लगातार सात दिनोंतक भूकम्प होता रहता है | इसलिये अब मै अपने उस आश्रम में रह नहीं सकता | आप समस्त लोकों के हित की इच्छा से उस विशालकाय दैत्य को मार डालिये | उसके मारे जानेपर सब सुखी हो जायेंगे |’

बृहदश्व बोले – भगवन ! मैंने तो अब अस्त्र-शस्त्रों का त्याग कर दिया | यह मेरा पुत्र है | यही धुंधू दैत्य का वध करेगा |
राजर्षि बृहदश्व अपने पुत्र कुवलाश्व को धुंधू के वध की आज्ञा दे स्वयं पर्वत के समीप चले गये | कुवलाश्व अपने सब पुत्रों को साथ ले धुंधू को मारने चले | साथ में महर्षि उत्तंग भी थे | उत्तंग के अनुरोध से सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिये साक्षात भगवान् विष्णु ने कुवलाश्व के शरीर में अपना तेज प्रविष्ट किया | दुर्धर्ष कुवलाश्व जब युद्ध के लिये प्रस्थित हुए, तब देवताओं का यह महान शब्द गूंज उठा – ‘ये श्रीमान नरेश अवध्य हैं | इनके हाथसे आज धुंधू अवश्य मारा जायगा |’ पुत्रों के साथ वहाँ जाकर वीरवर कुवलाश्व ने समुद्र को खुदवाया | खोदनेवाले राजकुमारों ने बालू के भीतर धुंधू का पता लगा लिया | वह पश्विम दिशा को घेरकर पड़ा था | वह पश्चिम दिशाको घेरकर पड़ा था | वह अपने मुख की आगसे सम्पूर्ण लोकों का संहार-सा करता हुआ | जल का स्त्रोत बहाने लगा | जैसे चंद्रमा के उदयकाल में समुद्र में ज्वार आता है, उसकी उत्ताल तरंगे बढने लगती है, उसीप्रकार वहाँ जल का वेग बढ़ने लगा | कुवलाश्व के पुत्रों में से तीन को छोडकर शेष सभी धुंधू की मुखाग्रिसे जलकर भस्म हो गये | तदनन्तर महातेजस्वी राजा कुवलाश्व ने उस महावली धुन्धुपर आक्रमण किया | वे योगी थे; इसलिये उन्होंने योगशक्ति के द्वारा वेग से प्रवाहित होनेवाले जल को पी लिया और आग को भी बुझा दिया | फिर बलपूर्वक उस महाकाय जलचर राक्षस को मारकर महर्षि उत्तंग का दर्शन किया | उत्तंग ने उन महात्मा राजा को वर दिया कि ‘तुम्हारा धन अक्षय होगा और शत्रु तुम्हें पराजित न कर सकेंगे | धर्म में सदा तुम्हारा प्रेम बना रहेगा तथा अंत में स्वर्गलोक का अक्षय निवास प्राप्त होगा | युद्ध में तुम्हारे जो पुत्र राक्षसद्वारा मारे गये हैं, उन्हें भी स्वर्ग में अक्षयलोक प्राप्त होंगे |’

धुंधूमार के जो तीन पुत्र युद्ध से जीवित बच गये थे, उनमें दृढाश्व सबसे जेष्ठ थे और चंद्राक्ष तथा कपिलाश्व उनके छोटे भाई थे | दृढाश्व के पुत्र का नाम हर्यश्व था | हर्यश्व का पुत्र निकुम्भ हुआ, जो सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहता था | निकुम्भ का युद्धविशारद पुत्र संहताश्व था | संहताश्व के दो पुत्र हुए – अकृशाश्व और कृशाश्व | उसके हेमवती नामकी एक कन्या भी हुई, जो आगे चलकर दृषद्वती के नामसे प्रसिद्ध हुई | उसका पुत्र प्रसेनजित हुआ, जो तीनों लोकों में विख्यात था | प्रसेनजित ने गौरी नामवाली पतिव्रता स्त्री से ब्याह किया था, जो बाद में पति के शाप से बाहुदा नामकी नदी हो गयी } प्रसेनजित के पुत्र राजा युवनाश्व हुए } युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए | वे त्रिभुवनविजयी थे | शशबिन्दु की सुशीला कन्या चैत्ररथी, जिसका दूसरा नाम बिन्दुमती भी था, मान्धाता की पत्नी हुई | इस भूतलपर उसके समान रूपवती स्त्री दूसरी नहीं थी | बिन्दुमती बड़ी पतिव्रता थी | वह दस हजार भाइयों की जेष्ठ भगिनी थी | मान्धाता के उसके गर्भ से धर्मज्ञ पुरुकुत्स और राजा मुचुकुन्द – ये दो पुत्र उत्पन्न किये | पुरुकुत्स के उनकी स्त्री नर्मदा के गर्भ से राजा त्रसदस्यु उत्पन्न हुए, उनसे सम्भूत का जन्म हुआ } सम्भूत के पुत्र शत्रुदमन त्रिधन्वा हुए | राजा त्रिधन्वा से विद्वान त्रय्यारुण हुए | उनका पुत्र महाबली सत्यव्रत हुआ | उसकी बुद्धि बड़ी खोटी थी | उसने वैवाहिक मन्त्रों में विघ्न डालकर दुसरे की पत्नी का अपहरण कर लिया | बालस्वभाव, कामासक्ति, मोह, साहस और चचंलतावश उसने ऐसा कुकर्म किया था | जिसका अपहरण हुआ था, वह उसके किसी पुरवासिकी ही कन्या थी | इस अधर्मरूपी शंकु (काँटे ) के कारण कुपित होकर त्रय्यारुण ने अपने उस पुत्र को त्याग दिया | उससमय उसने पूछा –‘पिताजी ! आपके त्याग देनेपर मैं कहाँ जाऊं ?’ पिताने कहा –‘ओ कुलकलंक ! जा, चांडालो के साथ रह | मुझे तेरे जैसे पुत्र की आवश्यकता नहीं है |’ यह सुनकर वह पिता के कथनानुसार नगर से बाहर निकल गया | उससमय महर्षि वसिष्ठ ने उसे मना नहीं किया | वह सत्यव्रत चांडाल के घर के पास रहने लगा | उसके पिता भी वनमें चले गये | तदनन्तर उसी अधर्म के कारण इंद्र ने उस राज्य में वर्षा बंद कर दी | महातपस्वी विश्वामित्र उसी राज्य में अपनी पत्नी को रखकर स्वयं समुद्र के निकट भारी तपस्या कर रहे थे | उनकी पत्नीने अकालग्रस्त हो अपने मझले औरस पुत्र के गले में रस्सी डाल दी और शेष परिवार के भरण-पोषण के लिये सौ गायें लेकर उसे बेच दिया | राजकुमार सत्यव्रत ने देखा कि विक्रय के लिये इसके गले में रस्सी बंधी हुई है; तब उस धर्मात्मा ने दया करके महर्षि विश्वामित्र के उस पुत्र को छुड़ा लिया और स्वयं ही उसका भरण = पोषण किया | ऐसा करनेमें उसका उद्देश्य था महर्षि विश्वामित्र को संतुष्ट करके उनकी कृपा प्राप्त करना | महर्षि का वह पुत्र गलेमें बंधन पड़ने के कारण महातपस्वी गालव के नामसे प्रसिद्ध हुआ |

                       – नारायण नारायण –

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