अध्याय – 5
राजा सगर का चरित्र तथा इक्ष्वाकु वंश के मुख्य – मुख्य राजाओं का परिचय
लोमहर्षण जी कहते है – राजकुमार सत्यव्रत भक्ति, दया और प्रतिज्ञावश विनयपूर्वक विश्वामित्रजी की स्त्री का पालन करने लगा | इससे मुनि बहुत संतुष्ट हुए | उन्होंने सत्यव्रत से इच्छानुसार वर माँगने के लिये कहा | राजकुमार बोला – ‘मैं इस शरीर के साथ ही स्वर्गलोक में चला जाऊँ |’ जब अनावृष्टि का भी दूर हो गया, तब विश्वामित्र ने उसे पिता के राज्यपर अभिषिक्त करके उसके द्वारा यज्ञ कराया | वे महातपस्वी थे, उन्होंने देवताओं तथा वसिष्ठ के देखते-देखते सत्यव्रत को शरीरसहित स्वर्गलोक में भेज दिया | उसकी पत्नी का नाम सत्यरथा था | वह केकयकुल की कन्या थी | उसने हरिश्चंद्र नामक निष्पाप पुत्र को जन्म दिया | राजसूय – यज्ञ का अनुष्ठान करके वे सम्राट कहलाये | हरिश्चंद्र के पुत्र का नाम रोहित था | रोहित के हरित और हरित के पुत्र चक्षु हुए | चक्षु के पुत्र का नाम विजय था | वे सम्पूर्ण पृथ्वीपर विजय प्राप्त करने के कारण विजय कहलाये | विजय के पुत्र राजा रुरुक हुए, जो धर्म और अर्थ के ज्ञाता थे | रुरुक के वृक, वृक के बाहू और बाहू के सगर हुए | वे गर अर्थात विष के साथ प्रकट हुए थे, इसलिये उनका नाम सगर हुआ | उन्होंने भृगवंशी और्व मुनि से आग्नेय-अस्त्र प्राप्तकर तालजंग और हैहय नामक क्षत्रियों को युद्ध में हराया और समूची पृथ्वीपर विजय प्राप्त की | फिर शक, पह्र्व तथा पारदों के धर्म का निराकरण किया |
मुनियोंने पूछा – सगर की उत्पत्ति गर के साथ कैसे हुई ? उन्होंने क्रोध में आकर शक आदि महातेजस्वी क्षत्रियों के कुलोचित धर्मो का निराकरण क्यों किया ? यह सब विस्तारपूर्वक सुनाइये |
लोमहर्षणजी ने कहा – राजा बाहू व्यसनी थे, अत: पहले हैहय नामक क्षत्रियों ने तालजंगों और शकों की सहायता से उनका राज्य छीन लिया | यवन, पारद, काम्बोज तथा पह्र्व नामके गणों ने भी हैहयों के लिये पराक्रम दिखाया | राज्य छिन जानेपर राजा बाहू दु:खी हो पत्नी के साथ वन में चले गये | वहीँ उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये | बाहू की पत्नी यादवी गर्भवती थी | वे भी राजा का सहगमन करने को प्रस्तुत हो गयी | उन्हें उनकी सौतने पहलेसे ही जहर दे रखा था | उन्होंने वन में चिता बनायी और उसपर आरूढ़ हो पति के साथ भस्म हो जाने का विचार किया | भृगवंशी और्वमुनि को उनकी दशापर बड़ी दया आयी | उन्होंने रानी को चिता में जलने से रोक दिया | उन्हीं के आश्रम में वह गर्भ जहर के साथ ही प्रकट हुआ | वही महाराज सगर हुए | और्व ने बालक के जातकर्म आदि संस्कार किये, वेद-शास्त्र पढाये तथा आग्नेय-अस्त्र भी प्रदान किया, जो देवताओं के लिये भी दु:सह है | उसीसे सगर ने हैहयवंशी क्षत्रियों का विनाश किया और लोक बड़ी भारी कीर्ति पायी | तदनंतर उन्होंने शक, यवन, काम्बोज, पारद तथा पह्र्वगणों का सर्वनाश करने के लिये उद्योग किया | वीरवर महात्मा सगर की मार पड़नेपर वे सभी महर्षि वसिष्ठ की शरण में गये और उनके चरणोंपर गिर पड़े | तब महातेजस्वी वसिष्ठ ने कुछ शर्त के साथ उन्हें अभय-दान दिया और राजा सगर को रोका | सगर ने अपनी प्रतिज्ञा तथा गुरु के वचन का विचार करके केवल उनके धर्म का निराकरण किया और उनके वेश बदल दिये | शकों के आधे मस्तक को मूँडकर विदा कर दिया | यवनों और काम्बोजों का सारा सिर मुंडा दिया | पारदों के सारे केश उड़ा दिये |
धर्मविजयी राजा सगर ने इस पृथ्वी को जीतकर अश्वमेध-यज्ञ की दीक्षा ली और अश्व को देश में विचरने के लिये छोड़ा | वह अश्व जब पूर्व-दक्षिण समुद्र के तटपर विचर रहा था, उससमय किसीने उसको चुरा लिया और पृथ्वी के भीतर छिपा दिया | राजाने अपने पुत्रों से उस प्रदेश को खुदवाया | महासागर की खुदाई होते समय उन्होंने वहाँ आदिपुरुष भगवान् विष्णु को जो हरि, कृष्ण और प्रजापति नाम से भी प्रसिद्ध हैं, महर्षि कपिल के रूप में शयन करते देखा | जागनेपर उनके नेत्रों के तेज से वे सभी जलकर भस्म हो गये | केवल चार ही बचे, जिनके नाम है – बर्षिकेतु, सुकेतु, धर्मरथ और पंचनद | ये ही राजा के वंश चलानेवाले हुए | कपिलरूपधारी भगवान् नारायण ने उन्हें वरदान दिया कि ‘राजा इक्ष्वाकु का वंश अक्षय होगा और इसकी कीर्ति कभी मिट नहीं सकती |’ भगवान् ने समुद्र को सगर का पुत्र बना दिया और अंत में उन्हें अक्षय स्वर्गवास के लिये भी आशीर्वाद दिया | उससमय समुद्र ने अर्घ्य लेकर महाराज सगर का वन्दन किया | सगर का पुत्र होने के कारण ही समुद्र का नाम सागर हुआ | उन्होंने अश्वमेध-यज्ञ के उस अश्व को पुन: समुद्र से प्राप्त किया और उसके द्वारा सौ अश्वमेध-यज्ञ के अनुष्ठान पूर्ण किये | हमने सुना है, राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे |
मुनियों ने पूछा – साधुवर ! सगर के साठ हजार पुत्र कैसे हुए | वे अत्यंत बलवान और वीर किस प्रकार हुए ?
लोमहर्षणजी ने कहा – सगर की दो रानियाँ थी, जो तपस्या करके अपने पाप दग्ध कर चुकी थी | उनमें बड़ी रानी विदर्भनरेश की कन्या थी | उनका नाम केशिनी था | छोटी रानी का नाम महती था | वह अरिष्टनेमि की पुत्री तथा परम धर्मपरायणा थी | इस पृथ्वीपर उसके रूप की समता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी | महर्षि और्व ने उन दोनों को इसप्रकार वरदान दिया – ‘एक रानी साठ हजार पुत्र प्राप्त करेगी और दूसरी को एक ही पुत्र होगा, किन्तु वह वंश चलानेवाला होगा | इन दो वरों में से जिसकी जिसे इच्छा हो, वह वही ले ले |’ तब उनमें से एक ने साठ हजार पुत्रों का वरदान ग्रहण किया उअर दूसरी ने वंश चलानेवाले एक ही पुत्र को प्राप्त करना चाहा | मुनिने ‘तथास्तु’ कहकर वरदान दे दिया, फिर एक रानी के राजा पंचजन हुए और दूसरी ने बीज से भरी हुई एक तूँबी उत्पन्न की | उसके भीतर तिल के बराबर साथ हजार गर्भ थे | वे समयानुसार सुखपूर्वक बढ़ने लगे | राजाने उन सब गर्भों को घीसे भरे हुए घड़ों में रखवा दिया और उनका पोषण करने के लिये प्रत्येक के पीछे एक-एक धाय नियुक्त कर दी | तत्पश्चात क्रमशः दस महीनों में सगर की प्रसन्नता बढ़ानेवाले वे सभी कुमार उठ खड़े हए | पंचजन ही राज बनाये गये | पंचजन के पुत्र अंशुमान हुए, जो बड़े पराक्रमी थे | उनके पुत्र दिलीप हुए, जो खट्वांग के नामसे भी प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने स्वर्ग से यहाँ आकर दो घड़ी के ही जीवन में अपनी बुद्धि तथा सत्य के प्रभाव से परमार्थ-साधन के द्वारा तीनो लोक जीत लिये | दिलीप के पुत्र महाराज भागीरथ हुए, जिन्होंने नदियों में श्रेष्ठ गंगा को स्वर्ग से पृथ्वीपर उतारकर समुद्रतक पहुँचाया और उन्हें अपनी पुत्री बना लिया | भागीरथी की पुत्री होने के कारण ही गंगा को भागीरथी कहते हैं | भगीरथ के पुत्र राजा श्रुत हुए | श्रुत के पुत्र नाभाग हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे | नाभाग के पुत्र अम्बरीष हुए, जो सिन्धुद्वीप के पिता थे | सिन्धुद्वीप के पुत्र अयुताजित हुए और अयुताजित से महायशस्वी ऋतुपर्ण की उत्पत्ति हुई, जो द्युतविद्या के रहस्य को जानते थे | राजा ऋतुपर्ण महाराज नल के सखा तथा बड़े बलवान थे | ऋतुपर्ण के पुत्र महायशस्वी आर्तुपर्णि हुए | उनके पुत्र सुदास हुए, जो इंद्र के मित्र थे | सुदास के पुत्र को सौदास बताया गया है; वे ही कल्माषपाद के नामसे विख्यात हुए तथा राजा मित्रसह भी उन्हीं का नाम था | कल्माषपाद के पुत्र सर्वकर्मा हुए, सर्वकर्मा के पुत्र अनरन्य थे | अनरन्य के दो पुत्र हुए – अनमित्र और रघु | अनमित्र के पुत्र राजा दुलिदुह थे | उनके पुत्र का नाम दिलीप हुआ, जो भगवान् श्रीरामचंद्रजी के प्रपितामह थे | दिलीप के पुत्र महाबाहू रघु हुए, जो अयोध्या के महाबली सम्राट थे | रघु के अज और अज के पुत्र दशरथ हुए | दशरथ से महायशस्वी धर्मात्मा श्रीराम का प्रादुर्भाव हुआ | श्रीरामचंद्रजी के पुत्र कुश के नामसे विख्यात हुए | कुश से अतिथिका जन्म हुआ, जो बड़े यशस्वी और धर्मात्मा थे | अतिथि के पुत्र महापराक्रमी निषध थे | निषध के नल और नल के नभ हुए | नभ के पुंडरिक और पुंडरिक के क्षेमधन्वा हुए | क्षेमधन्वा के पुत्र महाप्रतापी देवानीक थे | देवानीक से अहीनगु, अहीनगु से सुधन्वा, सुधन्वा से राजा शल, शल से धर्मात्मा उक्य, उक्य से वज्रनाभ और वज्रनाभ से नल का जन्म हुआ | मुनिवरो ! पुराण में दी ही नल प्रसिद्ध हैं – एक तो चन्द्रवंशीय वीरसेन के पुत्र थे और दुसरे इक्ष्वाकुवंश के धुरंधर वीर थे | इक्ष्वाकुवंश के मुख्य-मुख्य पुरुषों के नाम बताये गये | ये सुर्यवंश के अत्यंत तेजस्वी राजा थे | अदितिनंदन सूर्य की तथा प्रजाओं के पोषक श्राद्धदेव मनु की इस सृष्टि-परम्परा का पाठ करनेवाला मनुष्य सन्तानवान होता और सूर्य का सायुज्य प्राप्त करता है |
– नारायण नारायण –
राजा सगर का चरित्र तथा इक्ष्वाकु वंश के मुख्य – मुख्य राजाओं का परिचय
लोमहर्षण जी कहते है – राजकुमार सत्यव्रत भक्ति, दया और प्रतिज्ञावश विनयपूर्वक विश्वामित्रजी की स्त्री का पालन करने लगा | इससे मुनि बहुत संतुष्ट हुए | उन्होंने सत्यव्रत से इच्छानुसार वर माँगने के लिये कहा | राजकुमार बोला – ‘मैं इस शरीर के साथ ही स्वर्गलोक में चला जाऊँ |’ जब अनावृष्टि का भी दूर हो गया, तब विश्वामित्र ने उसे पिता के राज्यपर अभिषिक्त करके उसके द्वारा यज्ञ कराया | वे महातपस्वी थे, उन्होंने देवताओं तथा वसिष्ठ के देखते-देखते सत्यव्रत को शरीरसहित स्वर्गलोक में भेज दिया | उसकी पत्नी का नाम सत्यरथा था | वह केकयकुल की कन्या थी | उसने हरिश्चंद्र नामक निष्पाप पुत्र को जन्म दिया | राजसूय – यज्ञ का अनुष्ठान करके वे सम्राट कहलाये | हरिश्चंद्र के पुत्र का नाम रोहित था | रोहित के हरित और हरित के पुत्र चक्षु हुए | चक्षु के पुत्र का नाम विजय था | वे सम्पूर्ण पृथ्वीपर विजय प्राप्त करने के कारण विजय कहलाये | विजय के पुत्र राजा रुरुक हुए, जो धर्म और अर्थ के ज्ञाता थे | रुरुक के वृक, वृक के बाहू और बाहू के सगर हुए | वे गर अर्थात विष के साथ प्रकट हुए थे, इसलिये उनका नाम सगर हुआ | उन्होंने भृगवंशी और्व मुनि से आग्नेय-अस्त्र प्राप्तकर तालजंग और हैहय नामक क्षत्रियों को युद्ध में हराया और समूची पृथ्वीपर विजय प्राप्त की | फिर शक, पह्र्व तथा पारदों के धर्म का निराकरण किया |
मुनियोंने पूछा – सगर की उत्पत्ति गर के साथ कैसे हुई ? उन्होंने क्रोध में आकर शक आदि महातेजस्वी क्षत्रियों के कुलोचित धर्मो का निराकरण क्यों किया ? यह सब विस्तारपूर्वक सुनाइये |
लोमहर्षणजी ने कहा – राजा बाहू व्यसनी थे, अत: पहले हैहय नामक क्षत्रियों ने तालजंगों और शकों की सहायता से उनका राज्य छीन लिया | यवन, पारद, काम्बोज तथा पह्र्व नामके गणों ने भी हैहयों के लिये पराक्रम दिखाया | राज्य छिन जानेपर राजा बाहू दु:खी हो पत्नी के साथ वन में चले गये | वहीँ उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये | बाहू की पत्नी यादवी गर्भवती थी | वे भी राजा का सहगमन करने को प्रस्तुत हो गयी | उन्हें उनकी सौतने पहलेसे ही जहर दे रखा था | उन्होंने वन में चिता बनायी और उसपर आरूढ़ हो पति के साथ भस्म हो जाने का विचार किया | भृगवंशी और्वमुनि को उनकी दशापर बड़ी दया आयी | उन्होंने रानी को चिता में जलने से रोक दिया | उन्हीं के आश्रम में वह गर्भ जहर के साथ ही प्रकट हुआ | वही महाराज सगर हुए | और्व ने बालक के जातकर्म आदि संस्कार किये, वेद-शास्त्र पढाये तथा आग्नेय-अस्त्र भी प्रदान किया, जो देवताओं के लिये भी दु:सह है | उसीसे सगर ने हैहयवंशी क्षत्रियों का विनाश किया और लोक बड़ी भारी कीर्ति पायी | तदनंतर उन्होंने शक, यवन, काम्बोज, पारद तथा पह्र्वगणों का सर्वनाश करने के लिये उद्योग किया | वीरवर महात्मा सगर की मार पड़नेपर वे सभी महर्षि वसिष्ठ की शरण में गये और उनके चरणोंपर गिर पड़े | तब महातेजस्वी वसिष्ठ ने कुछ शर्त के साथ उन्हें अभय-दान दिया और राजा सगर को रोका | सगर ने अपनी प्रतिज्ञा तथा गुरु के वचन का विचार करके केवल उनके धर्म का निराकरण किया और उनके वेश बदल दिये | शकों के आधे मस्तक को मूँडकर विदा कर दिया | यवनों और काम्बोजों का सारा सिर मुंडा दिया | पारदों के सारे केश उड़ा दिये |
धर्मविजयी राजा सगर ने इस पृथ्वी को जीतकर अश्वमेध-यज्ञ की दीक्षा ली और अश्व को देश में विचरने के लिये छोड़ा | वह अश्व जब पूर्व-दक्षिण समुद्र के तटपर विचर रहा था, उससमय किसीने उसको चुरा लिया और पृथ्वी के भीतर छिपा दिया | राजाने अपने पुत्रों से उस प्रदेश को खुदवाया | महासागर की खुदाई होते समय उन्होंने वहाँ आदिपुरुष भगवान् विष्णु को जो हरि, कृष्ण और प्रजापति नाम से भी प्रसिद्ध हैं, महर्षि कपिल के रूप में शयन करते देखा | जागनेपर उनके नेत्रों के तेज से वे सभी जलकर भस्म हो गये | केवल चार ही बचे, जिनके नाम है – बर्षिकेतु, सुकेतु, धर्मरथ और पंचनद | ये ही राजा के वंश चलानेवाले हुए | कपिलरूपधारी भगवान् नारायण ने उन्हें वरदान दिया कि ‘राजा इक्ष्वाकु का वंश अक्षय होगा और इसकी कीर्ति कभी मिट नहीं सकती |’ भगवान् ने समुद्र को सगर का पुत्र बना दिया और अंत में उन्हें अक्षय स्वर्गवास के लिये भी आशीर्वाद दिया | उससमय समुद्र ने अर्घ्य लेकर महाराज सगर का वन्दन किया | सगर का पुत्र होने के कारण ही समुद्र का नाम सागर हुआ | उन्होंने अश्वमेध-यज्ञ के उस अश्व को पुन: समुद्र से प्राप्त किया और उसके द्वारा सौ अश्वमेध-यज्ञ के अनुष्ठान पूर्ण किये | हमने सुना है, राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे |
मुनियों ने पूछा – साधुवर ! सगर के साठ हजार पुत्र कैसे हुए | वे अत्यंत बलवान और वीर किस प्रकार हुए ?
लोमहर्षणजी ने कहा – सगर की दो रानियाँ थी, जो तपस्या करके अपने पाप दग्ध कर चुकी थी | उनमें बड़ी रानी विदर्भनरेश की कन्या थी | उनका नाम केशिनी था | छोटी रानी का नाम महती था | वह अरिष्टनेमि की पुत्री तथा परम धर्मपरायणा थी | इस पृथ्वीपर उसके रूप की समता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी | महर्षि और्व ने उन दोनों को इसप्रकार वरदान दिया – ‘एक रानी साठ हजार पुत्र प्राप्त करेगी और दूसरी को एक ही पुत्र होगा, किन्तु वह वंश चलानेवाला होगा | इन दो वरों में से जिसकी जिसे इच्छा हो, वह वही ले ले |’ तब उनमें से एक ने साठ हजार पुत्रों का वरदान ग्रहण किया उअर दूसरी ने वंश चलानेवाले एक ही पुत्र को प्राप्त करना चाहा | मुनिने ‘तथास्तु’ कहकर वरदान दे दिया, फिर एक रानी के राजा पंचजन हुए और दूसरी ने बीज से भरी हुई एक तूँबी उत्पन्न की | उसके भीतर तिल के बराबर साथ हजार गर्भ थे | वे समयानुसार सुखपूर्वक बढ़ने लगे | राजाने उन सब गर्भों को घीसे भरे हुए घड़ों में रखवा दिया और उनका पोषण करने के लिये प्रत्येक के पीछे एक-एक धाय नियुक्त कर दी | तत्पश्चात क्रमशः दस महीनों में सगर की प्रसन्नता बढ़ानेवाले वे सभी कुमार उठ खड़े हए | पंचजन ही राज बनाये गये | पंचजन के पुत्र अंशुमान हुए, जो बड़े पराक्रमी थे | उनके पुत्र दिलीप हुए, जो खट्वांग के नामसे भी प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने स्वर्ग से यहाँ आकर दो घड़ी के ही जीवन में अपनी बुद्धि तथा सत्य के प्रभाव से परमार्थ-साधन के द्वारा तीनो लोक जीत लिये | दिलीप के पुत्र महाराज भागीरथ हुए, जिन्होंने नदियों में श्रेष्ठ गंगा को स्वर्ग से पृथ्वीपर उतारकर समुद्रतक पहुँचाया और उन्हें अपनी पुत्री बना लिया | भागीरथी की पुत्री होने के कारण ही गंगा को भागीरथी कहते हैं | भगीरथ के पुत्र राजा श्रुत हुए | श्रुत के पुत्र नाभाग हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे | नाभाग के पुत्र अम्बरीष हुए, जो सिन्धुद्वीप के पिता थे | सिन्धुद्वीप के पुत्र अयुताजित हुए और अयुताजित से महायशस्वी ऋतुपर्ण की उत्पत्ति हुई, जो द्युतविद्या के रहस्य को जानते थे | राजा ऋतुपर्ण महाराज नल के सखा तथा बड़े बलवान थे | ऋतुपर्ण के पुत्र महायशस्वी आर्तुपर्णि हुए | उनके पुत्र सुदास हुए, जो इंद्र के मित्र थे | सुदास के पुत्र को सौदास बताया गया है; वे ही कल्माषपाद के नामसे विख्यात हुए तथा राजा मित्रसह भी उन्हीं का नाम था | कल्माषपाद के पुत्र सर्वकर्मा हुए, सर्वकर्मा के पुत्र अनरन्य थे | अनरन्य के दो पुत्र हुए – अनमित्र और रघु | अनमित्र के पुत्र राजा दुलिदुह थे | उनके पुत्र का नाम दिलीप हुआ, जो भगवान् श्रीरामचंद्रजी के प्रपितामह थे | दिलीप के पुत्र महाबाहू रघु हुए, जो अयोध्या के महाबली सम्राट थे | रघु के अज और अज के पुत्र दशरथ हुए | दशरथ से महायशस्वी धर्मात्मा श्रीराम का प्रादुर्भाव हुआ | श्रीरामचंद्रजी के पुत्र कुश के नामसे विख्यात हुए | कुश से अतिथिका जन्म हुआ, जो बड़े यशस्वी और धर्मात्मा थे | अतिथि के पुत्र महापराक्रमी निषध थे | निषध के नल और नल के नभ हुए | नभ के पुंडरिक और पुंडरिक के क्षेमधन्वा हुए | क्षेमधन्वा के पुत्र महाप्रतापी देवानीक थे | देवानीक से अहीनगु, अहीनगु से सुधन्वा, सुधन्वा से राजा शल, शल से धर्मात्मा उक्य, उक्य से वज्रनाभ और वज्रनाभ से नल का जन्म हुआ | मुनिवरो ! पुराण में दी ही नल प्रसिद्ध हैं – एक तो चन्द्रवंशीय वीरसेन के पुत्र थे और दुसरे इक्ष्वाकुवंश के धुरंधर वीर थे | इक्ष्वाकुवंश के मुख्य-मुख्य पुरुषों के नाम बताये गये | ये सुर्यवंश के अत्यंत तेजस्वी राजा थे | अदितिनंदन सूर्य की तथा प्रजाओं के पोषक श्राद्धदेव मनु की इस सृष्टि-परम्परा का पाठ करनेवाला मनुष्य सन्तानवान होता और सूर्य का सायुज्य प्राप्त करता है |
– नारायण नारायण –
अध्याय – 6
चन्द्रवंश के अंतर्गत जह्रु, कुशिक तथा भृगुवंश का संक्षिप्त वर्णन
लोमहर्षणजी कहते है – पूर्वकाल में जब ब्रह्माजी सृष्टि का विस्तार करना चाहते थे, उससमय उनके मनसे महर्षि अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ, जो चन्द्रमा के पिता थे | सुनने में आया है कि अत्रि ने तीन हजार दिव्य वर्षोंतक अनुत्तर नाम की तपस्या की थी, उसमें उनका वीर्य ऊर्ध्वगामी हो गया था | वही चन्द्रमा के रूप में प्रकट हुआ | महर्षि का वह तेज ऊर्ध्वगामी होनेपर उनके नेत्रों से जल के रूप में गिरा और दसों दिशाओं को प्रकाशित करने लगा | चन्द्रमा को गिरा देख लोकपितामह ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण लोकों के हितकी इच्छा से उसे रथपर बिठाया | अत्रि के पुत्र महात्मा सोम के गिरनेपर ब्रह्माजी के पुत्र तथा अन्य महर्षि उनकी स्तुति करने लगे | स्तुति करनेपर उन्होंने अपना तेज समस्त लोकों की पुष्टि के लिये सबौर फैला दिया |
चन्द्रमा ने उस श्रेष्ठ रथपर बैठकर समुद्रपर्यन्त समूची पृर्थ्वी की इक्कीस बार परिक्रमा की | उस समय उनका तेज चुकर पृथ्वीपर गिरा, उससे सब प्रकार के अन्न आदि उत्पन्न हुए, जिनसे यह जगत जीवन धारण करता है | इसप्रकार महर्षियों के स्तवन से तेज को पाकर महाभाग चन्द्रमा ने बहुत वर्षोतक तपस्या की; उससे संतुष्ट होकर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ बह्माजी ने उन्हें बीज, ओषधि, जल तथा बाह्मणों का राजा बना दिया | मृदुल स्वभाववालों में सबसे श्रेष्ठ सोम ने वह विशाल राज्य पाकर राजसूय-यज्ञ का अनुष्ठान किया, जिसमें लाखों की दक्षिणा बाँटी गयी | उस यज्ञ में सिनी, कुहू, द्युति, पुष्टि, प्रभा, वसु, कीर्ति, धृति तथा लक्ष्मी – इन नौ देवियों ने चन्द्रमा का सेवन किया | चन्द्रवंश के अंतर्गत जह्रु, कुशिक तथा भृगुवंश का संक्षिप्त वर्णन
लोमहर्षणजी कहते है – पूर्वकाल में जब ब्रह्माजी सृष्टि का विस्तार करना चाहते थे, उससमय उनके मनसे महर्षि अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ, जो चन्द्रमा के पिता थे | सुनने में आया है कि अत्रि ने तीन हजार दिव्य वर्षोंतक अनुत्तर नाम की तपस्या की थी, उसमें उनका वीर्य ऊर्ध्वगामी हो गया था | वही चन्द्रमा के रूप में प्रकट हुआ | महर्षि का वह तेज ऊर्ध्वगामी होनेपर उनके नेत्रों से जल के रूप में गिरा और दसों दिशाओं को प्रकाशित करने लगा | चन्द्रमा को गिरा देख लोकपितामह ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण लोकों के हितकी इच्छा से उसे रथपर बिठाया | अत्रि के पुत्र महात्मा सोम के गिरनेपर ब्रह्माजी के पुत्र तथा अन्य महर्षि उनकी स्तुति करने लगे | स्तुति करनेपर उन्होंने अपना तेज समस्त लोकों की पुष्टि के लिये सबौर फैला दिया |
यज्ञ के अंत में अवभृथ-स्नान के पश्चात सम्पूर्ण देवताओं तथा ऋषियों ने उनका पूजन किया | राजाधिराज सोम दसों दिशाओं को प्रकाशित करने लगे | महर्षियोंद्वारा सत्कृत वह दुर्लभ ऐश्वर्य पाकर चन्द्रमा की बुद्धि भ्रांत हो गयी | उनमें विनय का भाव दूर हो गया | और अनीति आ गयी; फिर तो ऐश्वर्य के मद से मोहित होकर उन्होंने बृहस्पतिजी की पत्नी तारा का अपहरण कर लिया | देवताओं और देवर्षियों के बारंबार प्रार्थना करनेपर भी उन्होंने बृहस्पतिजी को तारा नहीं लौटायी |
तब ब्रह्माजी ने स्वयं ही बीच में पडकर तारा को वापस कराया | उससमय वह गर्भिणी थी, यह देख बृहस्पतिजी ने कुपित होकर कहा – ‘मेरे क्षेत्र में तुम्हें दुसरे का गर्भ नहीं धारण करना चाहिये |’ तब उसने तृण के समूहपर उस गर्भ को त्याग दिया | पैदा होते ही उसने अपने तेज से देवताओं के विग्रह को लज्जित कर दिया | उससमय ब्रह्माजी ने तारा से पूछा – ‘ठीक-ठीक बताओ, यह किसका पुत्र है ?’ तब वह हाथ जोड़कर बोली – ‘चन्द्रमा का हैं |’ इतना सुनते ही राजा सोम ने उस बालक को गोद में उठा लिया और उसका मस्तक सूँघकर बुध नाम रखा | यह बालक बड़ा बुद्धिमान था | बुध आकाश में चन्द्रमा से प्रतिकूल दिशामें उदित होते हिया |
मुनिवरो ! बुध के पुत्र पुरुरवा हुए, जो बड़े विद्वान, तेजस्वी, दानशील, यज्ञकर्ता तथा अधिक दक्षिणा देनेवाले थे | वे ब्रह्मवादी, पराक्रमी तथा शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष थे | निरंतर अग्निहोत्र करते और यज्ञों के अनुष्ठान में संलग्न रहते थे | सत्य बोलते और बुद्धि को पवित्र रखते थे | तीनों लोकों में उनके समान यशस्वी दूसरा कोई नहीं था | वे ब्रह्मवादी, शांत, धर्मज्ञ तथा सत्यवादी थे; इसीलिये यशस्विनी उर्वशी ने मान छोड़कर उनका वरण किया | राजा पुरुरवा उर्वशी के साथ पवित्र स्थानों में उनसठ वर्षोतक विहार करते रहे | उन्होंने महर्षियोंद्वारा प्रशंसित प्रयाग में राज्य किया | उनका ऐसा ही प्रभाव था | पुरुरवा के सात पुत्र हुए, जो गंधर्वलोक में प्रसिद्ध और देव्कुमारों के समान सुंदर थे | उनके नाम इसप्रकार हैं – आयु, अमावसु, विश्वायु, धर्मात्मा, श्रुतायु, दृधायु, वनायु तथा बह्रायु – ये सब उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे | अमावसु के पुत्र राजा भीम हुए | भीम के पुत्र कांचनप्रभ और उनके पुत्र महाबली सुहोत्र हुए | सुहोत्र के पुत्र का नाम जह्रु था, जो केशिनी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे | उन्होंने सर्पमेध नामक महान यज्ञ का अनुष्ठान किया |
एक बार गंगा उन्हें पति बनाने के लोभ से उनके पास गयीं, किन्तु उन्होंने अनिच्छा प्रकट कर दी | तब गंगा ने उनकी यज्ञशाला बहा दी | यह देख जह्रु ने क्रोध में भरकर कहा – ‘गंगे ! मैं तेरा जल पीकर तेरे इस प्रयत्न को अभी व्यर्थ किये देता हूँ | तू अपने इस घमंड का फल शीघ्र पा ले |’ यों कहकर उन्होंने गंगा को पी लिया | यह देख महर्षियों ने बड़ी अनुनय करके गंगा को जह्रु की पुत्री के रूप में प्राप्त किया, तब से वे जाह्रवी कहलाने लगीं | तत्पश्चात जह्रु ने युवनाश्व की पुत्री कावेरी के साथ विवाह किया | युवनाश्व के शापवश गंगा अपने आधे स्वरुप से सरिताओं में श्रेष्ठ कावेरी में मिल गयी थी | जह्रु ने कावेरी के गर्भ से सुनध्य नामक धार्मिक पुत्र को जन्म दिया | सुनध्य के पुत्र अजक, अजक के बाल्काश्व और ब्लाकाश्व के पुत्र कुश हुए | कुश के देवताओं के समान तेजस्वी चार पुत्र हुए – कुशिक, कुशनाभ, कुशाम्ब और मूर्तिमान | राजा कुशिक वन में रहकर ग्वालों के साथ पले थे |
उन्होंने इंद्र के समान पुत्र प्राप्त करने की इच्छा से तप किया | एक हजार वर्ष पूर्ण होनेपर इंद्र भयभीत होकर उनके पास आये | उन्होंने स्वयं अपने को ही उनके पुत्ररूप में प्रकट किया | उससमय वे राजा गाधि के नामसे प्रसिद्ध हुए | कुशिक की पत्नी पौरा थी | उसी के गर्भ से गाधिका जन्म हुआ था | गाधि के एक परम सौभाग्यशालिनी कन्या हुई, जिसका नाम सत्यवती था | गाधि ने उस कन्या का विवाह शुक्राचार्य के पुत्र ऋचीक के साथ किया था | ऋचीक अपनी पत्नी से बहुत प्रसन्न रहते थे | उन्होंने अपने तथा राजा गाधि के पुत्र होने के लिये पृथक-पृथक चरु तैयार किये और अपनी पत्नी को बुलाकर कहा – ‘शुभे ! इस चरु का उपयोग तुम करना और इसका उपयोग अपनी माता से कराना | तुम्हारी माता को जो पुत्र होगा, वह तेजस्वी क्षत्रिय होगा |
लोकमें दूसरे क्षत्रिय उसे जित नहीं सकेंगे | वह बड़े-बड़े क्षत्रियों का संहार करनेवाला होगा तथा तुम्हारे लिये जो चरु है, वह तुम्हारे पुत्र को धीर, तपस्वी, शांतिपरायण एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण बानयेगा |’ अपनी पत्नी से यों कहकर भृगनंदन ऋचीक घने जंगल में चले गये और वहाँ प्रतिदिन तपस्या में संलग्न रहने लगे | उससमय राजा गाधि अपनी स्त्री के साथ तीर्थयात्रा के प्रसंग में घूमते हुए ऋचीकमुनि के आश्रमपर अपनी पुत्री से मिलने के लिये आये थे | सत्यवती ने दोनों चरु ऋषि से ले लिये थे | उसने उन्हें हाथ में लेकर अपनी माता को निवेदन किया | उसकी माता ने दैववश अपना चरु पुत्री को दे दिया और उसका चरु स्वयं ग्रहण कर लिया |
तदनंतर सत्यवती ने समस्त क्षत्रियों का विनाश करनेवाला गर्भ धारण किया | उसका शरीर अत्यंत उद्दीप्त हो रहा था | देखने में वह बड़ी भयंकर जान पडती थी | ऋचीक ने उसे देखकर योग के द्वारा सब कुछ जान लिया और उससे कहा – ‘भदे ! तुम्हारी माताने चरु बदलकर तुम्हें ठग लिया | तुम्हारा पुत्र कठोर कर्म करनेवाला और अंत्यंत दारुण होगा तथा तुम्हारा भाई ब्रह्मभूत तपस्वी होगा; क्योंकि मैंने तपस्या से सर्वरूप ब्रह्म का भाव उसमें स्थापित किया था | तब सत्यवती ने अपने पति को प्रसन्न करते हुए कहा – ‘मुने ! मेरा पुत्र ऐसा न हो; आप-जैसे महर्षि से ब्राह्मणाधमकी उत्पत्ति हो, यह मैं नहीं चाहती |’
यह सुनकर मुनि बोले – ‘भद्रे ! मेरा पुत्र ऐसा हो, यह संकल्प मैंने नहीं किया है; तथापि पिता और माता के कारण पुत्र कठोर कर्म करनेवाला हो सकता है |’ उनके यों कहनेपर सत्यवती बोली – ‘मुने ! आप चाहे तो नूतन लोकों की भी सृष्टि कर सकते है | फिर योग्य पुत्र उत्पन्न करना कौन बड़ी बात है | आप मुझे शान्तिपरायण कोमल स्वभाववाला पुत्र देने की कृपा करें | यदि चरु का प्रभाव अन्यथा न किया जा सके तो वैसे उग्र स्वभाव का पौत्र भले ही हो जाय, पुत्र वैसा कदापि न हो |’
तब मुनि ने अपने तपोबल से वैसा ही करने का आश्वासन देते हए सत्यवती के प्रति प्रसन्नता प्रकट की और कहा – ‘सुन्दरि ! पुत्र अथवा पौत्र में मैं कोई अंतर नहींमानता | तुमने जो कहा हैं, वैसा ही होगा |’ तत्पश्च्यात सत्यवती ने भृगुवंशी जमदग्नि को जन्म दिया, जो तपस्यापरायण, जितेन्द्रिय तथा सर्वत्र समभाव रखनेवाले थे | सत्यवती भी सत्यधर्म में तत्पर रहनेवाली पुण्यात्मा स्त्री थी | वाही कौशिकी नाम से प्रसिद्ध महानदी हुई | इक्ष्वाकुव्रंश में रेणु नामके एक राजा थे | उनकी कन्या का नाम रेणुका था | रेणुका को कामली भी कहते हैं | तप और विद्या से सम्पन्न जगदग्नि ने रेणुका के गर्भ से अत्यंत भयंकर परशुरामजी को प्रकट किया, जो समस्त विद्याओं में पारंगत, धनुर्वेद में प्रवीण, क्षत्रियकुल का संहार करनेवाले तथा प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी थे |
ऋचीक के सत्यवती से प्रथम तो ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ट जमदग्नि हुए | मध्यम पुत्र शुन:शेप और कनिष्ठ पुत्र शुन:पुच्छ थे | कुशिकनंदन गाधि ने विश्वामित्र को पुत्ररूप में प्राप्त किया, जो तपस्वी, विद्वान और शांत थे | वे ब्रह्मर्षि की समानता पाकर वास्तव में ब्रह्मर्षि हो गये | धर्मात्मा विश्वामित्र का दूसरा नाम विश्वरथ था | विश्वामित्र के देवरात आदि कई पुत्र हुए, जो सम्पूर्ण विश्व में विख्यात थे | उनके नाम इसप्रकार बतलाये जाते हैं | देवरात, कात्यायन गोत्र के प्रवर्तक कति, हिरण्याक्ष, रेणु, रेणुक, सांकृति, गालव, मृद्र्ल, मधुच्छन्द, जय, देवल, अष्टक, कच्छप और हारीत – ये सभी विश्वामित्र के पुत्र थे |
इन कौशिकवंशी महात्माओं के प्रसिद्ध गोत्र इस प्रकार है – पाणिनि, बभ्रु, ध्यानजप्य, पार्थिव, देवरात, शालंकायन, बाष्कल, लोहितायन, हारित और अष्टकाद्याजन |
इस वंश में ब्राह्मण और क्षत्रिय का सम्बन्ध विख्यात है | विश्वामित्र के पुत्रों में शुन:शेप सबसे बड़ा माना गया है; यद्यपि उसका जन्म भृगुकुल में हुआ था, तथापि वह कौशिक गोत्रवाला हो गया | हरिदश्व के यज्ञ में वह पशु बनाकर लाया गया था, किन्तु देवताओं ने उसे विश्वामित्र को समर्पित कर दिया | देवताओंद्वारा प्रदत्त होने के कारण वह देवरात नामसे विख्यात हुआ | देवरात आदि विश्वामित्र के अनेक पुत्र थे | विश्वामित्र की पत्नी दृषद्वती के गर्भ से अष्टक का जन्म हुआ था | अष्टक का पुत्र लौहि बताया गया हैं | इसप्रकार मैंने जह्रुकुल का वर्णन किया | इसके बाद महात्मा आयु के वंश का वर्णन करूँगा |
– नारायण नारायण –
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