नमस्कार मित्रों
सनातन धर्म, हिन्दू धर्म को पूर्ण रूप से समझने के लिए जरूरी है कि प्रारंभ से अध्ययन किया जायेे, इसलिए इस यात्रा का प्रारंभ करते हैं ब्रह्मांड पुराण से
*ब्रह्मांड पुराण*
अध्याय – 1
नैमिषारण्य में सूतजी का आगमन, पुराण का आरम्भ तथा सृष्टि का वर्णन-
यस्मात्सर्वमिदं प्रपंचरचितं मायाजगज्जायते यस्मिस्तिष्ठति याति चान्तसमये कल्पानुकल्पे पुन: |
यं ध्यात्वा मुनयः प्रपंचरहितं विन्दति मोक्षं ध्रुवं तं वन्दे पुरुषोत्तमाख्यममलं नित्यं विभुं निश्च्यलम ||
यं ध्यायन्ति बुधा: समाधिसमये शुद्धं वियत्संनिभं नित्यानंदमयं प्रसन्नममलं सर्वेश्वरं निर्गुणम |
व्यक्ताव्यक्तपरं प्रपंचरहितं ध्यानैकगम्यं विभुं तं संसारविनाशहेतुमजरं वन्दे हरिं मुक्तिदम ||
प्रत्येक कल्प और अनुकल्प में विस्तारपूर्वक रचा हुआ यह समस्त मायामय जगत जिनसे प्रकट होता, जिनमें स्थित रहता और अन्तकाल में जिनके भीतर पुन: लीन हो जाता हैं, जो इस दृश्य-प्रपंच से सर्वथा पृथक हैं, जिनका ध्यान करके मुनिजन सनातन मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं, उन नित्य, निर्मल, निश्चल तथा व्यापक भगवान् पुरषोत्तम (जगन्नाथजी) को मैं प्रणाम करता हूँ | जो शुद्ध, आकाश के समान निर्लेप, नित्यानंदमय, सदा प्रसन्न, निर्मल, सबके स्वामी, निर्गुण, व्यक्त और अव्यक्त से परे, प्रपंच से रहित, एकमात्र ध्यान में ही अनुभव करनेयोग्य तथा व्यापक हैं, समाधिकाल में विद्वान पुरुष इसी रूप में जिनका ध्यान करते है, जो संसार की उत्पत्ति और विनाश के एकमात्र कारण हैं, जरा-अवस्था जिनका स्पर्श भी नहीं कर सकती तथा जो मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, उन भगवान् श्रीहरि को मैं वन्दना करता हूँ |
पूर्वकाल की बात हैं, परम पुण्यमय पवित्र नैमिषारण्यक्षेत्र बड़ा मनोहर जान पड़ता था | वहाँ बहुत-से मुनि एकत्रित हुए थे, भाँति-भाँति पुष्प उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे थे |पीपल, पारिजात, चंदन, अगर, गुलाब तथा चम्पा आदि अन्य बहुत-से वृक्ष उसकी शोभा वृद्धि में सहायक हो रहे थे | भाँति-भाँति के पक्षी, नाना प्रकारके मृगों का झुंड, अनेक पवित्र जलाशय तथा बहुत-सी बावलियाँ उस वनको विभूषित कर रही थीं | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र तथा अन्य जाति के लोग भी वहाँ उपस्थित थे | ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी – सभी जुटे हुए थे | झुंड – की – झुंड गौएँ उस वनकी शोभा बढ़ा रही थी | नैमिषारण्यवासी मुनियों का द्वादशवार्षिक (बारह वर्षोतक चालू रहनेवाला) यज्ञ आरम्भ था | जौ, गेहूँ, चना, उड़द, मूँग और तिल आदि पवित्र अन्नों से यज्ञमंडप सुशोभित था | वहाँ होमकुंड में अग्निदेव प्रज्वलित थे और आहुतियाँ डाली जा रही थी. | उस महायज्ञ में सम्मिलित होने के लिये बहुत-से मुनि और ब्राह्मण अन्य स्थानों से आये | स्थानीय महर्षियों ने उन सबका यथायोग्य सत्कार किया | ऋत्विजोंसहित वे सब लोग जब आराम से बैठ गये, तब परम बुद्धिमान लोमहर्षण सूतजी वहाँ पधारे | उन्हें देखकर मुनिवरों को बड़ी प्रसन्नता हुई, उन सबने उनका यथावत सत्कार किया | सूतजी भी उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करके एक श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए | उससमय सब ब्राह्मण सूतजी के साथ वार्तालाप करने लगे | बातचीत के अंत में सबने व्यास-शिष्य लोमहर्षणजी से अपना संदेह पूछा |
मुनि बोले – साधूशिरोमणे ! आप पुराण, तन्त्र, छहों शास्त्र, इतिहास तथा देवताओं और दैत्यों के जन्म-कर्म एवं चरित्र- सब जानते हैं | वेद, शास्त्र, पुराण, महाभारत तथा मोक्षशास्त्र में कोई भी बात ऐसी नहीं हैं, जो आपको ज्ञात न हो |
महामते ! आप सर्वज्ञ हैं, अत: हम आपसे कुछ प्रश्नों का उत्तर सुनना चाहते हैं; बताइये, यह समस्त जगत कैसे उत्पन्न हुआ ? भविष्य में इसकी क्या दशा होगी ? स्थावर-जंगमरूप संसार सृष्टि से पहले कहाँ लीन था और फिर कहाँ लीन होगा ?
लोमहर्षणजी ने कहा – जो निर्विकार, शुद्ध, नित्य, परमात्मा, सदा एकरूप और सर्वविजयी हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार हैं | जो ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप से जगत् की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करनेवाले हैं, जो भक्तों को संसार-सागर से तारनेवाले हैं, उन भगवान् को प्रणाम हैं | जो एक होकर भी अनेक रूप धारण करते हैं, स्थूल और सूक्ष्म सब जिनके ही स्वरुप हैं, जो अव्यक्त (कारण) और व्यक्त (कार्य) – रूप तथा मोक्ष के हेतु हैं, उन भगवान्, विष्णु को नमस्कार हैं | जो जगतकी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाले हैं, जरा और मृत्यु जिनका स्पर्श नहीं करतीं, जो सबके मूल कारण हैं, उन परमात्मा विष्णु को नमस्कार हैं | जो इस विश्व के आधार हैं, अत्यंत सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं, सब प्राणियों के भीतर विराजमान हैं, क्षर और अक्षर पुरुष से उत्तम तथा अविनाशी हैं, उन भगवान् विष्णु को प्रणाम करता हूँ | जो वास्तवमें अत्यंत निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थो के रूपमें प्रतीत हो रहे हैं, जो विश्व की सृष्टि और पालन में समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, जगतके अधीश्वर हैं, जिनके जन्म और विनाश नहीं होते, जो अव्यय, आदि, अत्यंत सूक्ष्म तथा विश्वेश्वर हैं, उन श्रीहरि को तथा ब्रह्मा आदि देवताओं को मैं प्रणाम करता हौं | तत्पश्च्यात इतिहास-पुराणों के ज्ञाता, वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान, सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ पराशरनंदन भगवान् व्यास को, जो मेरे गुरुदेव हैं, प्रणाम करके मैं वेद के तुल्य माननीय पुराण का वर्णन करूँगा | पूर्वकाल में दक्ष आदि श्रेष्ठ मुनियों के पुछ्नेपर कमलयोनि भगवान् ब्रह्माजी ने जो सुनायी थी, वही पापनाशिनी कथा मैं इससमय कहूँगा | मेरी वह कथा बहुत ही विचित्र और अनेक अर्थोवाली होगी | उसमें श्रुतियों के अर्थ का विस्तार होगा | जो इस कथाको सदा अपने ह्रदय में धारण करेगा अथवा निरंतर सुनेगा, वह अपनी वंश-परम्परा को कायम रखते हुए स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होगा |
जो नित्य, सदसत्स्वरूप तथा कारणभूती अव्यक्त प्रकृति हैं, उसीको प्रधान कहते हैं | उसीसे पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया हैं | मुनीवरों ! अमिततेजस्वी ब्रह्माजी को ही पुरुष समझो | वे समस्त प्राणियों की सृष्टि करनेवाले तथा भगवान् नारायण के आश्रित हैं | प्रकृति से महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंकार तथा अहंकार से सब सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुए | भूतों के जो भेद हैं, वे भी उन सूक्ष्म भूतों से ही प्रकट हुए है | यह सनातन सर्ग हैं | तदनंतर स्वयम्भू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छासे सबसे पहले जल की ही सृष्टि की | फिर जलमें अपनी शक्ति का आधान किया | जलका दूसरा नाम ‘नार’ हैं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नर से हुई है | वह जल पूर्वकाल में भगवान का अयन (निवासस्थान) हुआ, इसलिये वे नारायण कहलाते हैं | भगवान् ने जो जल में अपनी शक्ति का आधान किया, उससे एक बहुत विशाल सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ | उसीमें स्वयम्भू ब्रह्माजी उत्पन्न हुए – ऐसा सुना जाता है | सुवर्ण के समान कांतिमय भगवान् ब्रह्माने एक वर्षतक इस अण्ड में निवास करके उसके दो टुकड़े कर दिये | फिर एक टुकड़े से द्युलोक बनाया और दुसरे से भूलोक | उन दोनों के बीच में आकाश रखा | जल के ऊपर तैरती हुई पृथ्वी को स्थापित किया | फिर दसों दिशाएँ निश्चित कीं | साथ ही काल, मन, वाणी, काम, क्रोध और रति की सृष्टि की | इस भावों के अनुरूप सृष्टि करनेकी इच्छासे ब्रह्माजी ने सात प्रजापतियों को अपने मनसे उत्पन्न किया | उनके नाम इसप्रकार हैं – मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा वसिष्ठ | पुराणों में ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं |
तत्पश्च्यात ब्रह्माजी ने अपने रोषसे रूद्र को प्रकट किया | फिर पुर्वोजों के भी पूर्वज सनत्कुमारजी को उत्पन्न किया | इन्हीं सात महर्षियों से समस्त प्रजा तथा ग्यारह रुदों का प्रादुर्भाव हुआ | उक्त सात महर्षियों के सात बड़े-बड़े दिव्य वंश हैं, देवता भी इन्हीं के अतंर्गत हैं | उक्त सातों वंशों के लोग कर्मनिष्ठ एवं संतानवान हैं | उन वंशों को बड़े-बड़े ऋषियों ने सुशोभित किया है | इसके बाद ब्रह्माजी ने विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित, इन्द्रधनुष, पक्षी तथा मेघों की सृष्टि की | फिर यज्ञों की सिद्धि के लिये उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद प्रकट किये | तदनंतर साध्य देवताओं की उत्पत्ति बतायी जाती हैं | छोटे-बड़े सभी भूत भगवान् ब्रह्मा के अंगों से उत्पन्न हुए हैं | इसप्रकार प्रजाकी सृष्टि करते रहनेपर भी जब प्रजाकी वृद्धि नहीं हुई, तब प्रजापति अपने शरीर के दो भाग करके आधेसे पुरुष और आधेसे स्त्री हो गये | पुरुष का नाम मनु हुआ | उन्हीं के नामपर ‘मन्वन्तर’ काल माना गया हैं | स्त्री अयोनिजा शतरूपा थी, जो मनु को पत्नीरूप में प्राप्त हुई | उसने दस हजार वर्षोतक अत्यंत दुष्कर तपस्या करके परम तेजस्वी पुरुष को पतिरूप में प्राप्त किया | वे ही पुरुष स्वायम्भुव मनु कहे गये हैं (वैराज पुरुष भी उन्हीं का नाम हैं ) | उनका ‘मन्वन्तर-काल’ इकहत्तर चतुर्युगी का बताया जाता हैं |
शतरूपा ने वैराज पुरुष के अंश से वीर, प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक पुत्र उत्पन्न किये | वीर से काम्या नामक श्रेष्ठ कन्या उत्पन्न हुई जो कर्दम प्रजापति की धर्मपत्नी हुई | काम्या के गर्भ से चार पुत्र हुए – सम्राट, कुक्षि, विराट और प्रभु | प्रजापति अत्रि ने राजा उत्तानपाद को गोद ले लिया | प्रजापति उत्तानपाद ने अपनी पत्नी सुनृता के गर्भ से ध्रुव, कीर्तिमान, आयुष्मान तथा वसु – ये चार पुत्र उत्पन्न किये | ध्रुव से उनकी पत्नी शम्भु ने श्लिष्टि और भव्य – इन दो पुत्रों को जन्म दिया | श्लिष्टि के उसकी पत्नी सुछाया के गर्भ से रिपु, रिपुज्जय, वीर, वृकल और वृकतेजा – ये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए | रिपु से बृहती ने चक्षुष के उनकी पत्नी पुष्करिणी से , जो माहात्मा प्रजापति वीरण की कन्या थी, चाक्षुष मनु उत्पन्न हुए | चाक्षुष मनुसे वैराज प्रजापति की कन्या नडवला के गर्भ से दस महाबली पुत्र हुए, जिनके नाम इसप्रकार हैं – कुत्स, पुरु, शतदयुम्न, तपस्वी, सत्यवाक, कवि, अग्निष्टुत, अतिरात्र, सुद्युम्न तथा अभिमन्यु | पुरु से आग्रेयी ने अंग, सुमना, स्वाति, क्रतु, अंगिरा तथा मय – ये छ: पुत्र उत्पन्न किये | अंग से सुनीथा ने वेन नामक एक पुत्र पैदा किया | वेन के अत्याचार से ऋषियों को बड़ा क्रोध हुआ; अत: प्रजाजनों की रक्षा के लिये उन्होंने उसके दाहिने हाथ का मंथन किया, उससे महाराज पृथु प्रकट हुए | उन्हें देखकर मुनियों ने कहा – ‘ये महातेजस्वी नरेश प्रजा को प्रसन्न रखेंगे तथा महान यश के भागी होंगे |’ वेनकुमार पृथु धनुष और कवच धारण किये अग्रि के समान तेजस्वीरूप में प्रकट हुए थे | उन्होंने इस पृथ्वी का पालन किया | राजसूय-यज्ञ के लिये अभिषिक्त होनेवाले राजाओं से वे सर्वप्रथम थे | उनसे ही स्तुति-गान में निपुण सूत और मागध प्रकट हुए | उन्होंने इस पृथ्वी से सब प्रकार के अनाज दुहे थे | प्रजा की जीविका चले, इसी उद्देश्य से उन्होंने देवताओं, ऋषियों, पितरों, दानवों, गन्धर्वो तथा अप्सराओं आदि के साथ पृथ्वी का दोहन किया था |
– नारायण नारायण –
नैमिषारण्य में सूतजी का आगमन, पुराण का आरम्भ तथा सृष्टि का वर्णन-
यस्मात्सर्वमिदं प्रपंचरचितं मायाजगज्जायते यस्मिस्तिष्ठति याति चान्तसमये कल्पानुकल्पे पुन: |
यं ध्यात्वा मुनयः प्रपंचरहितं विन्दति मोक्षं ध्रुवं तं वन्दे पुरुषोत्तमाख्यममलं नित्यं विभुं निश्च्यलम ||
यं ध्यायन्ति बुधा: समाधिसमये शुद्धं वियत्संनिभं नित्यानंदमयं प्रसन्नममलं सर्वेश्वरं निर्गुणम |
व्यक्ताव्यक्तपरं प्रपंचरहितं ध्यानैकगम्यं विभुं तं संसारविनाशहेतुमजरं वन्दे हरिं मुक्तिदम ||
प्रत्येक कल्प और अनुकल्प में विस्तारपूर्वक रचा हुआ यह समस्त मायामय जगत जिनसे प्रकट होता, जिनमें स्थित रहता और अन्तकाल में जिनके भीतर पुन: लीन हो जाता हैं, जो इस दृश्य-प्रपंच से सर्वथा पृथक हैं, जिनका ध्यान करके मुनिजन सनातन मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं, उन नित्य, निर्मल, निश्चल तथा व्यापक भगवान् पुरषोत्तम (जगन्नाथजी) को मैं प्रणाम करता हूँ | जो शुद्ध, आकाश के समान निर्लेप, नित्यानंदमय, सदा प्रसन्न, निर्मल, सबके स्वामी, निर्गुण, व्यक्त और अव्यक्त से परे, प्रपंच से रहित, एकमात्र ध्यान में ही अनुभव करनेयोग्य तथा व्यापक हैं, समाधिकाल में विद्वान पुरुष इसी रूप में जिनका ध्यान करते है, जो संसार की उत्पत्ति और विनाश के एकमात्र कारण हैं, जरा-अवस्था जिनका स्पर्श भी नहीं कर सकती तथा जो मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, उन भगवान् श्रीहरि को मैं वन्दना करता हूँ |
पूर्वकाल की बात हैं, परम पुण्यमय पवित्र नैमिषारण्यक्षेत्र बड़ा मनोहर जान पड़ता था | वहाँ बहुत-से मुनि एकत्रित हुए थे, भाँति-भाँति पुष्प उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे थे |पीपल, पारिजात, चंदन, अगर, गुलाब तथा चम्पा आदि अन्य बहुत-से वृक्ष उसकी शोभा वृद्धि में सहायक हो रहे थे | भाँति-भाँति के पक्षी, नाना प्रकारके मृगों का झुंड, अनेक पवित्र जलाशय तथा बहुत-सी बावलियाँ उस वनको विभूषित कर रही थीं | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र तथा अन्य जाति के लोग भी वहाँ उपस्थित थे | ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी – सभी जुटे हुए थे | झुंड – की – झुंड गौएँ उस वनकी शोभा बढ़ा रही थी | नैमिषारण्यवासी मुनियों का द्वादशवार्षिक (बारह वर्षोतक चालू रहनेवाला) यज्ञ आरम्भ था | जौ, गेहूँ, चना, उड़द, मूँग और तिल आदि पवित्र अन्नों से यज्ञमंडप सुशोभित था | वहाँ होमकुंड में अग्निदेव प्रज्वलित थे और आहुतियाँ डाली जा रही थी. | उस महायज्ञ में सम्मिलित होने के लिये बहुत-से मुनि और ब्राह्मण अन्य स्थानों से आये | स्थानीय महर्षियों ने उन सबका यथायोग्य सत्कार किया | ऋत्विजोंसहित वे सब लोग जब आराम से बैठ गये, तब परम बुद्धिमान लोमहर्षण सूतजी वहाँ पधारे | उन्हें देखकर मुनिवरों को बड़ी प्रसन्नता हुई, उन सबने उनका यथावत सत्कार किया | सूतजी भी उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करके एक श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए | उससमय सब ब्राह्मण सूतजी के साथ वार्तालाप करने लगे | बातचीत के अंत में सबने व्यास-शिष्य लोमहर्षणजी से अपना संदेह पूछा |
मुनि बोले – साधूशिरोमणे ! आप पुराण, तन्त्र, छहों शास्त्र, इतिहास तथा देवताओं और दैत्यों के जन्म-कर्म एवं चरित्र- सब जानते हैं | वेद, शास्त्र, पुराण, महाभारत तथा मोक्षशास्त्र में कोई भी बात ऐसी नहीं हैं, जो आपको ज्ञात न हो |
महामते ! आप सर्वज्ञ हैं, अत: हम आपसे कुछ प्रश्नों का उत्तर सुनना चाहते हैं; बताइये, यह समस्त जगत कैसे उत्पन्न हुआ ? भविष्य में इसकी क्या दशा होगी ? स्थावर-जंगमरूप संसार सृष्टि से पहले कहाँ लीन था और फिर कहाँ लीन होगा ?
लोमहर्षणजी ने कहा – जो निर्विकार, शुद्ध, नित्य, परमात्मा, सदा एकरूप और सर्वविजयी हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार हैं | जो ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप से जगत् की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करनेवाले हैं, जो भक्तों को संसार-सागर से तारनेवाले हैं, उन भगवान् को प्रणाम हैं | जो एक होकर भी अनेक रूप धारण करते हैं, स्थूल और सूक्ष्म सब जिनके ही स्वरुप हैं, जो अव्यक्त (कारण) और व्यक्त (कार्य) – रूप तथा मोक्ष के हेतु हैं, उन भगवान्, विष्णु को नमस्कार हैं | जो जगतकी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाले हैं, जरा और मृत्यु जिनका स्पर्श नहीं करतीं, जो सबके मूल कारण हैं, उन परमात्मा विष्णु को नमस्कार हैं | जो इस विश्व के आधार हैं, अत्यंत सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं, सब प्राणियों के भीतर विराजमान हैं, क्षर और अक्षर पुरुष से उत्तम तथा अविनाशी हैं, उन भगवान् विष्णु को प्रणाम करता हूँ | जो वास्तवमें अत्यंत निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थो के रूपमें प्रतीत हो रहे हैं, जो विश्व की सृष्टि और पालन में समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, जगतके अधीश्वर हैं, जिनके जन्म और विनाश नहीं होते, जो अव्यय, आदि, अत्यंत सूक्ष्म तथा विश्वेश्वर हैं, उन श्रीहरि को तथा ब्रह्मा आदि देवताओं को मैं प्रणाम करता हौं | तत्पश्च्यात इतिहास-पुराणों के ज्ञाता, वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान, सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ पराशरनंदन भगवान् व्यास को, जो मेरे गुरुदेव हैं, प्रणाम करके मैं वेद के तुल्य माननीय पुराण का वर्णन करूँगा | पूर्वकाल में दक्ष आदि श्रेष्ठ मुनियों के पुछ्नेपर कमलयोनि भगवान् ब्रह्माजी ने जो सुनायी थी, वही पापनाशिनी कथा मैं इससमय कहूँगा | मेरी वह कथा बहुत ही विचित्र और अनेक अर्थोवाली होगी | उसमें श्रुतियों के अर्थ का विस्तार होगा | जो इस कथाको सदा अपने ह्रदय में धारण करेगा अथवा निरंतर सुनेगा, वह अपनी वंश-परम्परा को कायम रखते हुए स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होगा |
जो नित्य, सदसत्स्वरूप तथा कारणभूती अव्यक्त प्रकृति हैं, उसीको प्रधान कहते हैं | उसीसे पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया हैं | मुनीवरों ! अमिततेजस्वी ब्रह्माजी को ही पुरुष समझो | वे समस्त प्राणियों की सृष्टि करनेवाले तथा भगवान् नारायण के आश्रित हैं | प्रकृति से महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंकार तथा अहंकार से सब सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुए | भूतों के जो भेद हैं, वे भी उन सूक्ष्म भूतों से ही प्रकट हुए है | यह सनातन सर्ग हैं | तदनंतर स्वयम्भू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छासे सबसे पहले जल की ही सृष्टि की | फिर जलमें अपनी शक्ति का आधान किया | जलका दूसरा नाम ‘नार’ हैं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नर से हुई है | वह जल पूर्वकाल में भगवान का अयन (निवासस्थान) हुआ, इसलिये वे नारायण कहलाते हैं | भगवान् ने जो जल में अपनी शक्ति का आधान किया, उससे एक बहुत विशाल सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ | उसीमें स्वयम्भू ब्रह्माजी उत्पन्न हुए – ऐसा सुना जाता है | सुवर्ण के समान कांतिमय भगवान् ब्रह्माने एक वर्षतक इस अण्ड में निवास करके उसके दो टुकड़े कर दिये | फिर एक टुकड़े से द्युलोक बनाया और दुसरे से भूलोक | उन दोनों के बीच में आकाश रखा | जल के ऊपर तैरती हुई पृथ्वी को स्थापित किया | फिर दसों दिशाएँ निश्चित कीं | साथ ही काल, मन, वाणी, काम, क्रोध और रति की सृष्टि की | इस भावों के अनुरूप सृष्टि करनेकी इच्छासे ब्रह्माजी ने सात प्रजापतियों को अपने मनसे उत्पन्न किया | उनके नाम इसप्रकार हैं – मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा वसिष्ठ | पुराणों में ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं |
तत्पश्च्यात ब्रह्माजी ने अपने रोषसे रूद्र को प्रकट किया | फिर पुर्वोजों के भी पूर्वज सनत्कुमारजी को उत्पन्न किया | इन्हीं सात महर्षियों से समस्त प्रजा तथा ग्यारह रुदों का प्रादुर्भाव हुआ | उक्त सात महर्षियों के सात बड़े-बड़े दिव्य वंश हैं, देवता भी इन्हीं के अतंर्गत हैं | उक्त सातों वंशों के लोग कर्मनिष्ठ एवं संतानवान हैं | उन वंशों को बड़े-बड़े ऋषियों ने सुशोभित किया है | इसके बाद ब्रह्माजी ने विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित, इन्द्रधनुष, पक्षी तथा मेघों की सृष्टि की | फिर यज्ञों की सिद्धि के लिये उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद प्रकट किये | तदनंतर साध्य देवताओं की उत्पत्ति बतायी जाती हैं | छोटे-बड़े सभी भूत भगवान् ब्रह्मा के अंगों से उत्पन्न हुए हैं | इसप्रकार प्रजाकी सृष्टि करते रहनेपर भी जब प्रजाकी वृद्धि नहीं हुई, तब प्रजापति अपने शरीर के दो भाग करके आधेसे पुरुष और आधेसे स्त्री हो गये | पुरुष का नाम मनु हुआ | उन्हीं के नामपर ‘मन्वन्तर’ काल माना गया हैं | स्त्री अयोनिजा शतरूपा थी, जो मनु को पत्नीरूप में प्राप्त हुई | उसने दस हजार वर्षोतक अत्यंत दुष्कर तपस्या करके परम तेजस्वी पुरुष को पतिरूप में प्राप्त किया | वे ही पुरुष स्वायम्भुव मनु कहे गये हैं (वैराज पुरुष भी उन्हीं का नाम हैं ) | उनका ‘मन्वन्तर-काल’ इकहत्तर चतुर्युगी का बताया जाता हैं |
शतरूपा ने वैराज पुरुष के अंश से वीर, प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक पुत्र उत्पन्न किये | वीर से काम्या नामक श्रेष्ठ कन्या उत्पन्न हुई जो कर्दम प्रजापति की धर्मपत्नी हुई | काम्या के गर्भ से चार पुत्र हुए – सम्राट, कुक्षि, विराट और प्रभु | प्रजापति अत्रि ने राजा उत्तानपाद को गोद ले लिया | प्रजापति उत्तानपाद ने अपनी पत्नी सुनृता के गर्भ से ध्रुव, कीर्तिमान, आयुष्मान तथा वसु – ये चार पुत्र उत्पन्न किये | ध्रुव से उनकी पत्नी शम्भु ने श्लिष्टि और भव्य – इन दो पुत्रों को जन्म दिया | श्लिष्टि के उसकी पत्नी सुछाया के गर्भ से रिपु, रिपुज्जय, वीर, वृकल और वृकतेजा – ये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए | रिपु से बृहती ने चक्षुष के उनकी पत्नी पुष्करिणी से , जो माहात्मा प्रजापति वीरण की कन्या थी, चाक्षुष मनु उत्पन्न हुए | चाक्षुष मनुसे वैराज प्रजापति की कन्या नडवला के गर्भ से दस महाबली पुत्र हुए, जिनके नाम इसप्रकार हैं – कुत्स, पुरु, शतदयुम्न, तपस्वी, सत्यवाक, कवि, अग्निष्टुत, अतिरात्र, सुद्युम्न तथा अभिमन्यु | पुरु से आग्रेयी ने अंग, सुमना, स्वाति, क्रतु, अंगिरा तथा मय – ये छ: पुत्र उत्पन्न किये | अंग से सुनीथा ने वेन नामक एक पुत्र पैदा किया | वेन के अत्याचार से ऋषियों को बड़ा क्रोध हुआ; अत: प्रजाजनों की रक्षा के लिये उन्होंने उसके दाहिने हाथ का मंथन किया, उससे महाराज पृथु प्रकट हुए | उन्हें देखकर मुनियों ने कहा – ‘ये महातेजस्वी नरेश प्रजा को प्रसन्न रखेंगे तथा महान यश के भागी होंगे |’ वेनकुमार पृथु धनुष और कवच धारण किये अग्रि के समान तेजस्वीरूप में प्रकट हुए थे | उन्होंने इस पृथ्वी का पालन किया | राजसूय-यज्ञ के लिये अभिषिक्त होनेवाले राजाओं से वे सर्वप्रथम थे | उनसे ही स्तुति-गान में निपुण सूत और मागध प्रकट हुए | उन्होंने इस पृथ्वी से सब प्रकार के अनाज दुहे थे | प्रजा की जीविका चले, इसी उद्देश्य से उन्होंने देवताओं, ऋषियों, पितरों, दानवों, गन्धर्वो तथा अप्सराओं आदि के साथ पृथ्वी का दोहन किया था |
– नारायण नारायण –
अध्याय – 2
राजा पृथु का चरित्र
मुनियों ने कहा – लोमहर्षणजी ! पृथु के जन्म की कथा विस्तारपूर्वक कहिये | उन महत्माने इस पृथ्वीका किस प्रकार दोहन किया था ?
लोमहर्षणजी बोले – द्विजवरो ! मैं वेनकुमार पृथु की कथा विस्तार के साथ सुनाता हूँ | आप लोग एकाग्रचित्त होकर सुनें | ब्राह्मणों ! जो पवित्र नहीं रहता, जिसका हृदय खोता हैं, जो अपने शासन में नहीं हैं, जो व्रत का पालन नहीं करता तथा जो कृतघ्न और अहितकारी है – ऐसे पुरुष को मैं यह कृतघ्न और अहितकारी हैं – ऐसे पुरुष को मैं यह प्रसंग नहीं सुना सकता | यह स्वर्ग देनेवाला, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, परम धन्य, वेदों के तुल्य, माननीय तथा गूढ़ रहस्य हैं | ऋषियों ने जैसा कहा हैं, वह सब मैं ज्यों-का-त्यों सुना रहा हूँ; सुनो | जो प्रतिदिन ब्राह्मणों को नमस्कार करके वेनकुमार पृथु के चरित्र का विस्तारपूर्वक कीर्तन करता हैं, उसे ‘अमुक कर्म मैंने किया और अमुक नहीं किया’ – इस बातका शोक नहीं होता | पूर्वकाल की बात हैं, अत्रि-कुल में उत्पन्न प्रजापति अंग बड़े धर्मात्मा और धर्म के रक्षक थे | वे अत्रि के समान ही तेजस्वी थे | उनका पुत्र वेन था, जो धर्म के तत्त्व को बिलकुल नहीं समझता था | उसका जन्म मृत्युकन्या सुनीथा के गर्भ से हुआ था | अपने नाना के स्वाभावदोष के कारण वह धर्मको पीछे रखकर काम और लोभ में प्रवृत्त हो गया | उसने धर्मकी मर्यादा भंग कर दी और वैदिक धर्मोका उल्लंघन करके वह अधर्म में तत्पर हो गया | विनाशकाल उपस्थित होनेके कारण उसने यह क्रूर प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘किसीको यज्ञ और होम नहीं करने दिया जायेगा | यजन करने योग्य, यज्ञ करनेवाला तथा यज्ञ भी मैं ही हूँ | मेरे ही लिये यज्ञ करना चाहिये | मेरे ही उद्देश्य से हवन होना चाहिये |’ इसप्रकार मर्यादा का उल्लंघन करके सब कुछ ग्रहण करनेवाले अयोग्य वेन से मरीचि आदि सब महर्षियों ने कहा – ‘वेन ! हम अनेक वर्षों के लिए यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करनेवाले हैं | तुम अधर्म न करो | यह यज्ञ आदि कार्य सनातन धर्म हैं |’
महर्षियों को यों कहते देख खोटी बुद्धिवाले वेन ने हँसकर कहा – ‘अरे ! मेरे सिवा दूसरा कौन धर्मका स्त्रष्टा हैं | मैं किसकी बात सुनूँ | विद्या, पराक्रम, तपस्या और सत्य के द्वारा मेरी समानता करनेवाला इस भूतलपर कौन हैं ? मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों की और विशेषत: सब धर्मो की उत्पत्तिका कारण हूँ | तुम सब लोग मुर्ख और अचेत हो, इसलिये मुझे नहीं जानते | यदि मैं चाहूँ तो इस पृथ्वीको भस्म कर दूँ, जलमें बहा दूँ या भूलोक तथा द्युलोक को भी रूँध डालूँ | इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं हैं |’ जब महर्षिगण वेन को मोह और अहंकार से किसी तरह हटा न सके, तब उन्हें बड़ा क्रोध हुआ | उन महात्माओं ने महाबली वेन को पकड़कर बाँध लिया | उससमय वह बहुत उछल-कूद मचा रहा था | महर्षि कुपित तो थे ही, वेन की बायीं जंघा का मंथन करने लगे | इससे एक काले रंग का पुरुष उत्पन्न हुआ, जो बहुत ही नाटा था | वह भयभीत हो हाथ जोडकर खड़ा हो गया | उसे व्याकुल देख अत्रि ने कहा –‘निषीद (बैठ जा) |’ इससे वह निषादवंश का प्रवर्तक हुआ और वेन के पाप से उत्पन्न हुए धीवरों की सृष्टि करने लगा | तत्पश्च्यात महात्माओं ने पुन: अरणी की भाँती वेन की दाहिनी भुजा का मंथन किया | उससे अग्रि के समान तेजस्वी पृथुका प्रादुर्भाव हुआ | वे भयानक टंकार करनेवाले आजगव नामक धनुष, दिव्य बाण तथा रक्षार्थ कवच धारण किये प्रकट हुए थे | उनके उत्पन्न होनेपर समस्त प्राणी बड़े प्रसन्न हुए और सब ओर से वहाँ एकत्रित होने लगे | वेन स्वर्गगामी हुआ |
महात्मा पृथु-जैसे सत्पुत्र ने उत्पन्न होकर वेन को ‘पुम’ नामक नरक से छुड़ा दिया | उनका अभिषेक करने के लिये समुद्र और सभी नदियाँ रत्न एवं जल लेकर स्वयं ही उपस्थित हुई | आंगिरस देवताओं के साथ भगवान् ब्रह्माजी तथा समस्त चराचर भूतों ने वहाँ आकर राजा पृथु का राज्याभिषेक किया | उन महाराज ने सभी प्रजाका मनोरंजन किया | उनके पिताने प्रजा को बहुत दु:खी किया था, किन्तु पृथु ने उन सबको प्रसन्न कर लिया; प्रजा का मनोरंजन करने के कारण ही उनका नाम राजा हुआ | वे सब समुद्र की यात्रा करते तब उसका जल स्थिर हो जाता था | पर्वत उन्हें जाने के लिये मार्ग दे देते थे और उनके रथ की ध्वजा कभी भंग नहीं हुई | उनके राज्य में पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी | राजाका चिन्तन करनेमात्र से अन्न सिद्ध हो जाता था | सभी गौएँ कामधेनु बन गयी थीं और पत्तों के दोने-दोने में मधु भरा रहता था | उसीसमय पृथु ने पैतामह (ब्रह्माजी से सम्बन्ध रखनेवाला) यज्ञ किया | उसमें सोमाभिषव् के दिन सूति (सोमरस निकालने की भूमि) से परम बुद्धिमान सूत की उत्पत्ति हुई | उसी महायज्ञ में विद्वान मागध का भी प्रादुर्भाव हुआ | उन दोनों को महर्षियों ने पृथु की स्तुति करने के लिये बुलाया और कहा – ‘तुम लोग इन महाराज की स्तुति करो | यह कार्य तुम्हारे अनुरूप है और ये महाराज भी इसके योग्य पात्र हैं |’ यह सुनकर सूत और मागध ने उन महर्षियों से कहा – ‘हम अपने कर्मों से देवताओं तथा ऋषियों को प्रसन्न करते हैं | इन महाराज का नाम, कर्म, लक्षण और यश – कुछ भी हमें ज्ञात नहीं है, जिससे इन तेजस्वी नरेश की हम स्तुति कर सकें |’ तब ऋषियों ने कहा – ‘भविष्य में होनेवाले गुणों का उल्लेख करते हुए स्तुति करो |’ उन्होंने वैसा ही किया | उन्होंने जो-जो कर्म बताये, उन्हीं को महाबली पृथु ने पीछे से पूर्ण किया | तभीसे लोक में सूत, मागध और वंदीजनों के द्वारा आशीर्वाद दिलाने की परिपाटी चल पड़ी | वे दोनों जब स्तुति कर चुके, तब महाराज पृथु ने अत्यंत प्रसन्न होकर अनूप देशका राज्य सूत को और मगध का मागध को दिया | पृथु को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई प्रजा से महर्षियों ने कहा – ‘ ये महाराज तुम्हें जीविका प्रदान करनेवाले होंगे |’ यह सुनकर सारी प्रजा महात्मा राजा पृथु की ओर दौड़ी और बोली – ‘आप हमारे लिये जीविका का प्रबंध कर दें |’ जब प्रजाओं ने उन्हें इसप्रकार घेरा, तब वे उनका हित करने की इच्छासे धनुष-बाण हाथ में ले प्रथ्वी की और दौड़े | पृथ्वी उनके भय से थर्रा उठी और गौका रूप धारण करके भागी | तब पृथु ने धनुष लेकर भागती हुई पृथ्वीका पीछा किया | पृथ्वी उनके भयसे ब्रह्मलोक आदि अनेक लोकों में गयी, किन्तु सब जगह उसें धनुष लिये हुए पृथु को अपने आगे ही देखा | अग्रि के समान प्रज्वलित तीखे बाणों के कारण उनका तेज और भी उद्दीप्त दिखायी देता था | वे महान योगी महात्मा देवताओं के लिये भी दुर्धर्ष प्रतीत होते थे | जब और कहीं रक्षा न हो सकी, तब तीनों लोकों की पूजनीया पृथ्वी हाथ जोडकर फिर महाराज पृथु की ही शरण में आयी और इसप्रकार बोली – ‘राजन ! सब लोक मेरे ही ऊपर स्थित हैं | मैं ही इस जगत को धारण करती हूँ | यदि मेरा नाश हो जाय तो समस्त प्रजा नष्ट हो जायगी | इस बातको अच्छी तरह समझ लेना | भूपाल ! यदि तुम प्रजाका कल्याण चाहते हो तो मेरा वध न करो | मैं जो बात कहती हूँ, उसे सुनो; ठीक उपायसे आरम्भ किये हुए सब कार्य सिद्ध होते हैं | तुम इस उपायपर ही दृष्टीपात करो, जिससे इस प्रजाको जीवित रख सकोगे | मेरी हत्या करके भी तुम प्रजा के पालन-पोषण में समर्थ न होगे | महामते ! तुम क्रोध त्याग दो, मैं तुम्हारे अनुकूल हो जाऊँगी | तिर्यग्योनि में भी स्त्री को अवध्य बताया गया हैं; यदि यह बात सत्य है तो तुम्हें धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये |
पृथु ने कहा – भद्रे ! जो अपने या पराये किसी एक के लिए बहुत-से प्राणियों का वध करता हैं, उसे अनंत पातक लगता है; परन्तु जिस अशुभ व्यक्तिका वध करनेपर बहुत-से लोग सुखी हों, उसके मारने से पातक या उपपातक कुछ नहीं लगता | अत: वसुन्धरे ! मैं प्रजाका कल्याण करनेके लिये तुम्हारा वध करूँगा | यदि मेरे कहने से आज संसारका कल्याण नहीं करोगी तो अपने बाणसे तुम्हारा नाश कर दूँगा और अपनेको ही पृथ्वीरूप में प्रकट करके स्वयं ही प्रजा को धारण करूँगा; इसलिये तुम मेरी आज्ञा मानकर समस्त प्रजाकी जीवन-रक्षा करो; क्योंकि तुम सबके धारण में समर्थ हो | इस समय मेरी पुत्री बन जाओ; तभी मैं इस भयंकर बाण को, जो तुम्हारे वध के लिये उद्यत हैं, रोकूँगा |
पृथ्वी बोली – वीर ! नि:संदेह मैं यह सब कुछ करूँगी | मेरे लिये कोई बछड़ा देखो, जिसके प्रति स्नेहयुक्त होकर मैं दूध दे सकूँ | धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भूपाल ! तुम मुझे सब ओर बराबर कर दो, जिससे मेरा दूध सब ओर बह सके |
तब राजा पृथु ने अपने धनुष की नोक से लाखों पर्वतों को उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर एकत्रित किया | इससे पर्वत बढ़ गये | इससे पहले की सृष्टि में भूमि समतल न होने के कारण पुरों अथवा ग्रामों का कोई सीमाबद्ध विभाग नहीं हो सका था | उससमय अन्न, गोरक्षा, खेती और व्यापार भी नहीं होते थे | यह सब तो वेन-कुमार पृथु के समय से ही आरम्भ हुआ है | भूमिका जो-जो भाग समतल था, वहीँ-वहीपर समस्त प्रजाने निवास करना पसंद किया | उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल-मूल ही था और वह भी बड़ी कठिनाई से मिलता था | राजा पृथुने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ में ही पृथ्वी को दुहा | उन प्रतापी नरेश ने पृथ्वी से सब प्रकार के अन्नों का दोहन किया | उसी अन्नसे आज भी सब प्रजा जीवन धारण करती है | उससमय ऋषि, देवता, पितर, नाग, दैत्य, यक्ष, पुण्यजन, गंधर्व, पर्वत और वृक्ष – सबने पृथ्वी को दुहा | उनके दूध, बछड़ा, पात्र और दुह्नेवाला- ये सभी पृथक-पृथक थे | ऋषियों के चन्द्रमा बछड़ा बने, बृहस्पति ने दुहने का काम किया, तपोमय ब्रह्म उनका दूध था और वेद ही उनके पात्र थे | देवताओं ने सुवर्णमय पात्र लेकर पुष्टिकारक दूध दुहा | उनके लिए इंद्र बछड़ा बने और भगवान् सूर्य ने दुहनेका काम किया | पितरों का चाँदी का पात्र था | प्रतापी यम बछड़ा बने, अन्तक ने दूध दुहा | उनके दूध को ‘स्वधा’ नाम दिया गया हैं | नागों ने तक्षक को बछड़ा बनाया | तुम्बीका पात्र रखा | ऐरावत नागसे दुहने का काम लिया और विषरूपी दुग्ध का दोहन किया | असुरों में मधु दुहनेवाला बना | उसने मायामय दूध दुहा | उससमय विरोचन बछड़ा बना था और लोहे के पात्र में दूध दुहा गया था | यक्षों का कच्चा पात्र था | कुबेर बछड़ा बने थे | रजतनाभ यक्ष दुहनेवाला था और अन्तर्धान होने की विद्या ही उनका दूध था | राक्षसेन्द्रों में सुमाली नामका राक्षस बछड़ा बना | रजतनाम दुह्नेवाला था | उसने कपालरूपी पात्र में शोणितरूपी दूध का दोहन किया | गन्धर्वों में चित्ररथ ने बछड़े का काम पूरा किया | कमल ही उनका पात्र था | सुरुचि दुह्नेवाला था और पवित्र सुगंध ही उनका दूध था | पर्वतों में म्हागिरि मेरु ने हिमवान को बछड़ा बनाया और स्वयं दुह्नेवाला बनकर शिलामय पात्र में रत्नों एवं ओषधियों को दूध के रूप में दुहा | वृक्षों में प्लक्ष (पाकड़) बछड़ा था | खिले हुए शाल के वृक्ष ने दुहने का काम किया | पलाश का पात्र था और जल ने तथा कटनेपर पुन: अंकुरित हो जाना ही उनका दूध था |
इसप्रकार सबका धारण-पोषण करनेवाली यह पावन वसुंधरा समस्त चराचर जगत की आधारभूता तथा उत्पत्तिस्थान हैं | यह सब कामनाओं को देनेवाली तथा सब प्रकार के अन्नों को अंकुरित करनेवाली है | गोरुपा पृथ्वी मेदिनी के नामसे विख्यात हैं | यह समुद्रतक पृथु के ही अधिकार में थी | मधु और कैटभ के मेद से व्याप्त होने के कारण यह मेदिनी कहलाती है | फिर राजा पृथु की आज्ञा के अनुसार भूदेवी उनकी पुत्री बन गयी, इसलिये इसे पृथ्वी भी कहते हैं | पृथु ने इस पृथ्वीका विभाग और शोधन किया, जिससे यह अन्न की खान और समृद्धिशालिनी बन गयी | गाँवों और नगरों के कारण इसकी बड़ी शोभा होने लगी | वेन-कुमार महाराज पृथुका ऐसा ही प्रभाव था | इसमें संदेह नहीं कि वे समस्त प्राणियों के पूजनीय और वन्दनीय हैं | वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों को भी महाराज पृथु की ही वंदना करनी चाहिये, क्योंकि वे सनातन ब्रह्मयोनि हैं | राज्य की इच्छा रखनेवाले राजाओं के लिये भी परम प्रतापी महाराज पृथु ही वन्दनीय हैं | युद्ध में विजय की कामना करनेवाले पराक्रमी योद्धाओं को भी उन्हें मस्तक झुकाना चाहिये | क्योंकि योद्धाओं में वे अग्रगण्य थे | जो सैनिक राजा पृथु का नाम लेकर संग्राम में जाता हैं, वह भयंकर संग्राम से भी सकुशल लौटता है और यशस्वी होता है | वैश्यवृत्ति करनेवाले धनि वैश्यों को भी चाहिये कि वे महाराज पृथु को नमस्कार करें, क्योंकि राजा पृथु सबके वृत्तिदाता और परम यशस्वी थे | इस संसार में परमकल्याण की इच्छा रखनेवाले तथा तीनों वर्णों की सेवामें लगे रहनेवाले पवित्र शुदों के लिये भी राजा पृथु ही वन्दनीय हैं | इसप्रकार जहाँ पृथ्वी को दुहने के लिये जो विशेष-विशेष बछड़े, दुहनेवाले, दूध तथा पात्र कल्पित किये गये थे , उन सबका मैंने वर्णन किया |
– नारायण नारायण –
आगे ब्रह्मांड पुराण अध्याय 3-4
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