ब्रह्मांड की उत्पत्ति भाग 3 , सनातन धर्म, हिन्दू धर्म/आधुनिक सिद्धांत http://www.sanatandharma-hindudharm.tk
ब्रह्मांड की उत्पत्ति भाग 3, सनातन धर्म, हिन्दू धर्म /आधुनिक सिद्धांत
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ब्रह्मांड उत्पत्ति का हिंदू सिद्धांत : ,
'सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।' -ऋग्वेद
ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा- यह तीन तत्व ही हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना' होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है। -उपनिषद
जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि नृत्यकार और नृत्य में कोई फर्क नहीं। जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है, इसीलिए हमने अर्धनारीश्वर नटराज को समझा।
'सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।' -ऋग्वेद
ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा- यह तीन तत्व ही हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना' होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है। -उपनिषद
जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि नृत्यकार और नृत्य में कोई फर्क नहीं। जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है, इसीलिए हमने अर्धनारीश्वर नटराज को समझा।
खगोलशास्त्र की शुरुआती अवधारणाएं,
दो प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिकों प्लेटों और अरस्तु ने ब्रह्मांड की प्रकृति से सम्बन्धित ऐसे विचार रखें जो 2000 से भी अधिक वर्षों तक कायम रहें। अरस्तु ने यह सिद्धांत दिया था कि पृथ्वी विश्व (ब्रह्मांड) के केंद्र में स्थिर है तथा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और तारे वृत्ताकार कक्षाओं में पृथ्वी के चारों ओर घूमते हैं। अरस्तु के इसी विचार को आधार बनाकर दूसरी शताब्दी में टॉलेमी द्वारा ब्रह्मांड का भूकेंद्री मॉडल प्रस्तुत किया गया। हालाँकि प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक आर्यभट ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और खगोल स्थिर है।
उनकी यह मान्यता पौराणिक धारणा के विपरीत थी। इसलिए बाद के खगोलशास्त्रियों ने उनकी इस सही मान्यता को स्वीकार नहीं किया। वैसे दिलचस्प बात यह है कि जब दुराग्रही वेदान्तियों द्वारा आर्यभट की इस मान्यता का विरोध किया जा रहा था, तब यूरोप में निकोलस कोपरनिकस सूर्यकेंद्री मॉडल प्रस्तुत कर रहे थे। कोपरनिकस द्वारा एक आसान मॉडल प्रस्तुत किया गया जिसमे यह बताया गया था कि पृथ्वी व अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। वैसे आर्यभट ने यह जरुर बताया था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, परंतु वे यह नहीं बता पाए थे कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।
रात अंधेरी क्यों?,
वर्ष 1826 में वियना के एक चिकित्सक ओल्बर्स ने एक प्रश्न उठाया कि रात में आकाश अंधकारपूर्ण क्यों रहता है? ओल्बर्स ने यह माना कि ब्रह्मांड अनादि है और अनंत रूप से विस्तृत है तथा तारों से समान रूप से भरा हुआ है। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि इन सभी तारों से हमें कुल कितना प्रकाश प्राप्त होना चाहिए? दूर स्थित तारा अधिक प्रकाश नहीं भेज सकता है क्योंकि भौतिकी का यह नियम है कि कोई भी प्रकाशवान वस्तु प्रेक्षक से जितनी अधिक दूर होती है, उससे आनेवाला प्रकाश उतना ही कम मिलता है। परन्तु जितना अधिक दूर हम देखते है, उतने ही अधिक तारे हमे दिखाई देते हैं तथा उनकी संख्या इस दूरी के वर्ग के अनुपात में बढती जाती है। ये दोनों ही प्रभाव एक दूसरे को निष्फल कर देते हैं। अत: एक निश्चित दूरी पर स्थित तारे कुल मिलकर हमे एक जैसा ही प्रकाश देते हैं फिर चाहें वे पास हों या दूर!
स्थिर ब्रह्मांड की अवधारणा,
जब हम आकाश की ओर देखतें हैं तो हमे आकाश में न तो फैलाव दिखाई पड़ता है और न ही सिकुड़न तब हम उस स्थिति में आकाश को स्थिर आकाश कह सकते हैं। इस स्थिति में कोई भी विचारशील व्यक्ति यही मानेगा कि ब्रह्मांड का आकारसीमित है तथा इसका कुल द्रव्यमान निश्चित है, इसलिए ब्रह्मांड समय के साथ अपरिवर्तित (स्थिर) है।
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन Albert Einstein का भी पहले यही मानना था कि ब्रह्मांड स्थिर, शाश्वत एवं सीमित है। मतलब उनका यह मानना था कि ब्रह्मांड हमेशा से ऐसा रहा है और सदैव ही ऐसा रहेगा। यद्यपि आइन्स्टाइन के ही सामान्य सापेक्षता सिद्धांत से यह स्पष्ट हो रहा था कि दिक्-काल या तो सिकुड़ेगा या फिर फैलेगा, मगर स्थिर नहीं रहेगा। आइन्स्टाइन को अपने ही सिद्धांत में स्थिर ब्रह्मांड के पक्ष में संकेत मिलने के बावजूद उसके समर्थन में अपने ही समीकरणों को संशोधित करतेहुए उसमें उन्होंने एक पद जोड़ा, जिसे ब्रहमांडीय नियतांककहते हैं। दरअसल आइन्स्टाइन ने एक विरोधी गुरुत्वाकर्षण बल की कल्पना की थी। जहाँ प्रत्येक गुरुत्वाकर्षण बल का कोई न कोई स्रोत होता है वहीं आइन्स्टाइन द्वारा कल्पित विरोधी गुरुत्वाकर्षण बल का कोई खास स्रोत नहीं था, बल्कि वह दिक्-काल का एक अंतर्निहित अंग था जिसकी प्रकृति और प्रवृत्ति ब्रह्मांड को संकुचित होने से रोकने एवं स्थिरता प्रदान करने की थी।
फैलता हुआ ब्रह्मांड ,
बीसवीसदी के प्रारम्भ में कोई भी वैज्ञानिक नहीं जानता था कि तारों से परे ब्रह्मांड का विस्तार कहाँ तक है। वर्ष 1920 में खगोलविदों द्वारा एक अन्तर्राष्ट्रीय विचार-गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें ब्रह्मांड के विस्तार एवं आकार पर चर्चा होनी थी। हार्लो शेप्ली Harlow Shapley तथा बहुसंख्य खगोलविद इस मत के पक्ष में थे कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड का विस्तार हमारी आकाशगंगा तक ही सीमित है। दूसरी तरफ हेबर क्यूर्टिस Haber Curtis तथा कुछ थोड़े से लोगों का मानना था कि हमारी आकाशगंगा की ही तरह ब्रह्मांड में दूसरी भी आकाशगंगाएं हैं, जो हमारी आकाशगंगा से अलग अस्तित्व रखती हैं। जैसा कि बड़ी-बड़ी विचार गोष्ठियों में होता है, इस बैठक में भी बहुमत का ही पलड़ा भारी रहा।
परंतु वर्ष 1924 में एडविन हब्बल Edwin Hubble तथा उनके सहयोगियों ने माउंट विल्सन वेधशाला की दूरबीन से यह सिद्ध कर दिया कि इस विराट ब्रह्मांड में हमारी आकाशगंगा की तरह लाखों अन्य आकाशगंगाएं भी हैं। अत: हब्बल के प्रेक्षणों ने क्यूर्टिस के दृष्टिकोण को सही सिद्ध कर दिया। मगर, हब्बल के निरीक्षण केअन्य निष्कर्ष क्यूर्टिस की कल्पना से भी परे के थे। दरअसल वर्ष 1929 में हब्बल ने यह भी खोज की कि दूर की आकाशगंगाओं से प्राप्त होने वाले प्रकाश की तरंग-लंबाई में एक नियमित वृद्धि है।
स्थायी अवस्था सिद्धांत,
बीसवीं सदी के प्रतिभाशाली ब्रह्माण्ड विज्ञानी फ्रेड हॉयल ने अंग्रेज गणितज्ञ हरमान बांडी और अमेरिकी वैज्ञानिक थोमस गोल्ड के साथ संयुक्त रूप से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का सिद्धांत प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत ‘स्थायी अवस्था सिद्धांत’ (Steady State Theory) के नाम से विख्यात है। इस सिद्धांत के अनुसार, न तो ब्रह्माण्ड का कोई आदि है और न ही कोई अंत। यह समयानुसार अपरिवर्तित रहता है। यद्यपि इस सिद्धांत में प्रसरणशीलता समाहित है, परन्तु फिर भी ब्रह्माण्ड के घनत्व को स्थिर रखने के लिए इसमें पदार्थ स्वत: रूप से सृजित होता रहता है। जहाँ ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के सर्वाधिक मान्य सिद्धांत (बिग बैंग सिद्धांत) के अनुसार पदार्थों का सृजन अकस्मात हुआ, वहीं स्थायी अवस्था सिद्धांत में पदार्थोँ का सृजन हमेशा चालू रहता है।
हॉयल ने बिग बैंग सिद्धांत के अवधारणाओं के साथ असहमति क्यों प्रकट की? दरअसल हॉयल जैसे दार्शनिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए ब्रह्माण्ड के आदि या आरम्भ जैसे विचार को मानना अत्यंत कष्टदायक था। ब्रह्माण्ड के आरम्भ (सृजन)के लिए कोई कारण और सृजनकर्ता (कर्ता) होना चाहिये। वर्तमान में इस सिद्धांत केसमर्थक न के बराबर हैं।
इस तरह जन्मा ब्रह्मांड ,
ज्ञानिक जानने में लगे हैं कि इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति कैसे हुई? वे धर्म की बातों पर न तो संदेह करते हैं और न विश्वास, सिर्फ खोज करते हैं, लेकिन यदि हम यह मानकर ही खोज करते हैं कि ऐसा हुआ होगा तो वह पूर्ण सत्य नहीं माना जाएगा, क्योंकि यदि आपने यह मान ही लिया है कि ईश्वर परम तत्व है, तब बस उसके होने के तथ्य जुटाना हैं तो फिर आप समझो कि भटक गए। खोजी व्यक्ति कुछ भी मानकर नहीं चलता, सिर्फ खोज में लग जाता है।
वैज्ञानिक मान्यता : लगभग 14 अरब साल पहले ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था। अचानक एक बिंदु की उत्पत्ति हुई। फिर वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे विस्फोट। शिव पुराण मानता है कि नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई।
महामशीन का महाप्रयोग :,
महामशीन का महाप्रयोग : वैज्ञानिक कहते हैं कि महामशीन-लार्ड हेड्रॉन कोलाइडर के महाप्रयोग से यह रहस्य खुलने का अनुमान है कि आखिर द्रव्य (मैटर) क्या है? और उनमें द्रव्यमान (भार) कहाँ से आता है? क्या द्रव्य को उस प्रयोग से देख सकेंगे जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। शायद वह एक सेकंड का एक अरबवाँ हिस्सा रहा होगा, जब ब्रह्मांड का निर्माण हुआ होगा और संभावना है कि उस क्षण को देख सकेंगे।
इस तरह जन्मा ब्रह्मांड,
इस ब्रह्म की दो प्रकृतियाँ हैं पहली 'अपरा' और दूसरी 'परा'। अपरा को ब्रह्मांड कहा गया और परा को चेतन रूप आत्मा। उस एक ब्रह्म ने ही स्वयं को दो भागों में विभक्त कर दिया, किंतु फिर भी वह अकेला बचा रहा। पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है, इसलिए ब्रह्म सर्वत्र माना जाता है और सर्वत्र से अलग भी उसकी सत्ता है।
परम तत्व से प्रकृति में तीन गुणों की उत्पत्ति हुई सत्व, रज और तम। ये गुण सूक्ष्म तथा अतिंद्रिय हैं, इसलिए इनका प्रत्यक्ष नहीं होता। इन तीन गुणों के भी गुण हैं- प्रकाशत्व, चलत्व, लघुत्व, गुरुत्व आदि इन गुणों के गुण हैं, अत: स्पष्ट है कि यह गुण द्रव्यरूप हैं। ये ब्रहांड या प्रकृति के निर्माणक तत्व हैं। प्रकृति से ही महत् उत्पन्न हुआ जिसमें उक्त गुणों की साम्यता और प्रधानता थी। सत्व शांत और स्थिर है। रज क्रियाशील है और तम विस्फोटक है। उस एक के प्रकृति तत्व में ही उक्त तीनों के टकराव से सृष्टि होती गई।
अब इसे इस तरह भी समझें : ,
यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।
वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है, वहाँ से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।
सनातन धर्म, हिन्दू धर्म/आधुनिक सिद्धांतदो प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिकों प्लेटों और अरस्तु ने ब्रह्मांड की प्रकृति से सम्बन्धित ऐसे विचार रखें जो 2000 से भी अधिक वर्षों तक कायम रहें। अरस्तु ने यह सिद्धांत दिया था कि पृथ्वी विश्व (ब्रह्मांड) के केंद्र में स्थिर है तथा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और तारे वृत्ताकार कक्षाओं में पृथ्वी के चारों ओर घूमते हैं। अरस्तु के इसी विचार को आधार बनाकर दूसरी शताब्दी में टॉलेमी द्वारा ब्रह्मांड का भूकेंद्री मॉडल प्रस्तुत किया गया। हालाँकि प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक आर्यभट ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और खगोल स्थिर है।
उनकी यह मान्यता पौराणिक धारणा के विपरीत थी। इसलिए बाद के खगोलशास्त्रियों ने उनकी इस सही मान्यता को स्वीकार नहीं किया। वैसे दिलचस्प बात यह है कि जब दुराग्रही वेदान्तियों द्वारा आर्यभट की इस मान्यता का विरोध किया जा रहा था, तब यूरोप में निकोलस कोपरनिकस सूर्यकेंद्री मॉडल प्रस्तुत कर रहे थे। कोपरनिकस द्वारा एक आसान मॉडल प्रस्तुत किया गया जिसमे यह बताया गया था कि पृथ्वी व अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। वैसे आर्यभट ने यह जरुर बताया था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, परंतु वे यह नहीं बता पाए थे कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।
रात अंधेरी क्यों?,
वर्ष 1826 में वियना के एक चिकित्सक ओल्बर्स ने एक प्रश्न उठाया कि रात में आकाश अंधकारपूर्ण क्यों रहता है? ओल्बर्स ने यह माना कि ब्रह्मांड अनादि है और अनंत रूप से विस्तृत है तथा तारों से समान रूप से भरा हुआ है। यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि इन सभी तारों से हमें कुल कितना प्रकाश प्राप्त होना चाहिए? दूर स्थित तारा अधिक प्रकाश नहीं भेज सकता है क्योंकि भौतिकी का यह नियम है कि कोई भी प्रकाशवान वस्तु प्रेक्षक से जितनी अधिक दूर होती है, उससे आनेवाला प्रकाश उतना ही कम मिलता है। परन्तु जितना अधिक दूर हम देखते है, उतने ही अधिक तारे हमे दिखाई देते हैं तथा उनकी संख्या इस दूरी के वर्ग के अनुपात में बढती जाती है। ये दोनों ही प्रभाव एक दूसरे को निष्फल कर देते हैं। अत: एक निश्चित दूरी पर स्थित तारे कुल मिलकर हमे एक जैसा ही प्रकाश देते हैं फिर चाहें वे पास हों या दूर!
स्थिर ब्रह्मांड की अवधारणा,
जब हम आकाश की ओर देखतें हैं तो हमे आकाश में न तो फैलाव दिखाई पड़ता है और न ही सिकुड़न तब हम उस स्थिति में आकाश को स्थिर आकाश कह सकते हैं। इस स्थिति में कोई भी विचारशील व्यक्ति यही मानेगा कि ब्रह्मांड का आकारसीमित है तथा इसका कुल द्रव्यमान निश्चित है, इसलिए ब्रह्मांड समय के साथ अपरिवर्तित (स्थिर) है।
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन Albert Einstein का भी पहले यही मानना था कि ब्रह्मांड स्थिर, शाश्वत एवं सीमित है। मतलब उनका यह मानना था कि ब्रह्मांड हमेशा से ऐसा रहा है और सदैव ही ऐसा रहेगा। यद्यपि आइन्स्टाइन के ही सामान्य सापेक्षता सिद्धांत से यह स्पष्ट हो रहा था कि दिक्-काल या तो सिकुड़ेगा या फिर फैलेगा, मगर स्थिर नहीं रहेगा। आइन्स्टाइन को अपने ही सिद्धांत में स्थिर ब्रह्मांड के पक्ष में संकेत मिलने के बावजूद उसके समर्थन में अपने ही समीकरणों को संशोधित करतेहुए उसमें उन्होंने एक पद जोड़ा, जिसे ब्रहमांडीय नियतांककहते हैं। दरअसल आइन्स्टाइन ने एक विरोधी गुरुत्वाकर्षण बल की कल्पना की थी। जहाँ प्रत्येक गुरुत्वाकर्षण बल का कोई न कोई स्रोत होता है वहीं आइन्स्टाइन द्वारा कल्पित विरोधी गुरुत्वाकर्षण बल का कोई खास स्रोत नहीं था, बल्कि वह दिक्-काल का एक अंतर्निहित अंग था जिसकी प्रकृति और प्रवृत्ति ब्रह्मांड को संकुचित होने से रोकने एवं स्थिरता प्रदान करने की थी।
फैलता हुआ ब्रह्मांड ,
बीसवीसदी के प्रारम्भ में कोई भी वैज्ञानिक नहीं जानता था कि तारों से परे ब्रह्मांड का विस्तार कहाँ तक है। वर्ष 1920 में खगोलविदों द्वारा एक अन्तर्राष्ट्रीय विचार-गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें ब्रह्मांड के विस्तार एवं आकार पर चर्चा होनी थी। हार्लो शेप्ली Harlow Shapley तथा बहुसंख्य खगोलविद इस मत के पक्ष में थे कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड का विस्तार हमारी आकाशगंगा तक ही सीमित है। दूसरी तरफ हेबर क्यूर्टिस Haber Curtis तथा कुछ थोड़े से लोगों का मानना था कि हमारी आकाशगंगा की ही तरह ब्रह्मांड में दूसरी भी आकाशगंगाएं हैं, जो हमारी आकाशगंगा से अलग अस्तित्व रखती हैं। जैसा कि बड़ी-बड़ी विचार गोष्ठियों में होता है, इस बैठक में भी बहुमत का ही पलड़ा भारी रहा।
परंतु वर्ष 1924 में एडविन हब्बल Edwin Hubble तथा उनके सहयोगियों ने माउंट विल्सन वेधशाला की दूरबीन से यह सिद्ध कर दिया कि इस विराट ब्रह्मांड में हमारी आकाशगंगा की तरह लाखों अन्य आकाशगंगाएं भी हैं। अत: हब्बल के प्रेक्षणों ने क्यूर्टिस के दृष्टिकोण को सही सिद्ध कर दिया। मगर, हब्बल के निरीक्षण केअन्य निष्कर्ष क्यूर्टिस की कल्पना से भी परे के थे। दरअसल वर्ष 1929 में हब्बल ने यह भी खोज की कि दूर की आकाशगंगाओं से प्राप्त होने वाले प्रकाश की तरंग-लंबाई में एक नियमित वृद्धि है।
स्थायी अवस्था सिद्धांत,
बीसवीं सदी के प्रतिभाशाली ब्रह्माण्ड विज्ञानी फ्रेड हॉयल ने अंग्रेज गणितज्ञ हरमान बांडी और अमेरिकी वैज्ञानिक थोमस गोल्ड के साथ संयुक्त रूप से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का सिद्धांत प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत ‘स्थायी अवस्था सिद्धांत’ (Steady State Theory) के नाम से विख्यात है। इस सिद्धांत के अनुसार, न तो ब्रह्माण्ड का कोई आदि है और न ही कोई अंत। यह समयानुसार अपरिवर्तित रहता है। यद्यपि इस सिद्धांत में प्रसरणशीलता समाहित है, परन्तु फिर भी ब्रह्माण्ड के घनत्व को स्थिर रखने के लिए इसमें पदार्थ स्वत: रूप से सृजित होता रहता है। जहाँ ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के सर्वाधिक मान्य सिद्धांत (बिग बैंग सिद्धांत) के अनुसार पदार्थों का सृजन अकस्मात हुआ, वहीं स्थायी अवस्था सिद्धांत में पदार्थोँ का सृजन हमेशा चालू रहता है।
हॉयल ने बिग बैंग सिद्धांत के अवधारणाओं के साथ असहमति क्यों प्रकट की? दरअसल हॉयल जैसे दार्शनिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए ब्रह्माण्ड के आदि या आरम्भ जैसे विचार को मानना अत्यंत कष्टदायक था। ब्रह्माण्ड के आरम्भ (सृजन)के लिए कोई कारण और सृजनकर्ता (कर्ता) होना चाहिये। वर्तमान में इस सिद्धांत केसमर्थक न के बराबर हैं।
इस तरह जन्मा ब्रह्मांड ,
ज्ञानिक जानने में लगे हैं कि इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति कैसे हुई? वे धर्म की बातों पर न तो संदेह करते हैं और न विश्वास, सिर्फ खोज करते हैं, लेकिन यदि हम यह मानकर ही खोज करते हैं कि ऐसा हुआ होगा तो वह पूर्ण सत्य नहीं माना जाएगा, क्योंकि यदि आपने यह मान ही लिया है कि ईश्वर परम तत्व है, तब बस उसके होने के तथ्य जुटाना हैं तो फिर आप समझो कि भटक गए। खोजी व्यक्ति कुछ भी मानकर नहीं चलता, सिर्फ खोज में लग जाता है।
वैज्ञानिक मान्यता : लगभग 14 अरब साल पहले ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था। अचानक एक बिंदु की उत्पत्ति हुई। फिर वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे विस्फोट। शिव पुराण मानता है कि नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई।
महामशीन का महाप्रयोग :,
महामशीन का महाप्रयोग : वैज्ञानिक कहते हैं कि महामशीन-लार्ड हेड्रॉन कोलाइडर के महाप्रयोग से यह रहस्य खुलने का अनुमान है कि आखिर द्रव्य (मैटर) क्या है? और उनमें द्रव्यमान (भार) कहाँ से आता है? क्या द्रव्य को उस प्रयोग से देख सकेंगे जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। शायद वह एक सेकंड का एक अरबवाँ हिस्सा रहा होगा, जब ब्रह्मांड का निर्माण हुआ होगा और संभावना है कि उस क्षण को देख सकेंगे।
इस तरह जन्मा ब्रह्मांड,
इस ब्रह्म की दो प्रकृतियाँ हैं पहली 'अपरा' और दूसरी 'परा'। अपरा को ब्रह्मांड कहा गया और परा को चेतन रूप आत्मा। उस एक ब्रह्म ने ही स्वयं को दो भागों में विभक्त कर दिया, किंतु फिर भी वह अकेला बचा रहा। पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है, इसलिए ब्रह्म सर्वत्र माना जाता है और सर्वत्र से अलग भी उसकी सत्ता है।
परम तत्व से प्रकृति में तीन गुणों की उत्पत्ति हुई सत्व, रज और तम। ये गुण सूक्ष्म तथा अतिंद्रिय हैं, इसलिए इनका प्रत्यक्ष नहीं होता। इन तीन गुणों के भी गुण हैं- प्रकाशत्व, चलत्व, लघुत्व, गुरुत्व आदि इन गुणों के गुण हैं, अत: स्पष्ट है कि यह गुण द्रव्यरूप हैं। ये ब्रहांड या प्रकृति के निर्माणक तत्व हैं। प्रकृति से ही महत् उत्पन्न हुआ जिसमें उक्त गुणों की साम्यता और प्रधानता थी। सत्व शांत और स्थिर है। रज क्रियाशील है और तम विस्फोटक है। उस एक के प्रकृति तत्व में ही उक्त तीनों के टकराव से सृष्टि होती गई।
अब इसे इस तरह भी समझें : ,
यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से आच्छादित है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।
वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहाँ तक प्रकाशित होता है, वहाँ से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है। उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।
आगे ब्रह्मांड की उत्पत्ति भाग 4 देखे http://www.sanatandharma-hindudharm.tk/2018/08/4.html
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